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________________ श्री संवेगरंगशाला तमाल के गुच्छे के समान अति मनोहर केश कलाप से शोभित, शरद पूर्णिमा के चन्द्र समान मुख की कान्ति से दिशाओं को भी उज्जवल करती, निर्मल किरणों वाली मोती के हार से शोभती, स्थूल स्तनों वाली, अति श्रेष्ठ लगे हए सुन्दर मणियों के कंदोरे से शोभित कमर वाली, केले के वृक्ष के समान, अनुक्रम से स्थूल गोलाकार और मनोहर देदीप्यमान दो जंघा वाली, पैर में पहनी हई कोमल झनझनाहट करती धुंघरुओं से रमणीय, अत्यन्त विचित्र, महामूल्य के श्रेष्ठ दुकुल वस्त्रों से सज्ज और कल्पवृक्ष के पुष्पों की सुगन्ध से आए हुए भौंरों की श्रेणियों से श्याम दिखती सुन्दर मनोहर अनेक युवतियों से घिरा हुआ अनंग केतू नामक अति प्रसिद्ध विद्याधर राजा का पुत्र शाश्वत चैत्यों की यात्रा करके अपने घर की ओर जाते मुनि को अनशन में स्थित जानकर वहाँ जमीन पर उतरा। फिर अति विशाल भक्ति के समूह से प्रगट हआ रोमांचित वाले उसने गंगदत्त मुनि की दीर्घकाल तक स्तुति करके स्त्रियों के साथ अपने नगर में गया । साधु गंगदत्त का भी स्त्रियों के मन को हरण में समर्थ उस विद्याधर का श्रेष्ठ सौभाग्य देखकर मन चलायमान हो गया और इस प्रकार विचार करने लगा कि यह महात्मा स्त्रियों के समूह से घिरा हुआ इस तरह लीला करता है, और पापकर्मी मैं तो इस काल में स्त्रियों से इस तरह पराभव प्राप्त किया है। इसलिए मेरा जीवन निरर्थक है, और दुष्ट मनुष्य जन्म को धिक्कार है ! कि यद्यपि के अखण्ड देह वाला हूँ, फिर भी इस तरह विडम्बना को प्राप्त किया। इस तरह कुविकल्पों के वश पड़ा हुआ वह बोला कि-'यदि इस साधु जीवन का कुछ फल हो तो मैं आगामी जन्म में इसके जैसा ही सौभाग्यशाली बन्।' ऐसा निदान करके वहाँ से मरकर वह महेन्द्र कल्प में श्रेष्ठ देव उत्पन्न हुआ और वहाँ विषयों को भोगकर तथा आयुष्य पूर्ण कर पृथ्वी के तिलक समान उज्जैन नगर में श्री समरसिंह राजा की सोमा नामक रानी की कुक्षि में पुत्र रूप उत्पन्न हुआ, श्रेष्ठ स्वप्न के द्वारा गर्भ की उत्तमता को सूचन करने वाला और निरोगी उसका उचित समय पर जन्म हुआ। उसके जन्म की खुशी मनाई गई। कई ओर से बधाईयाँ आईं, समय पर उसका नाम रणशूर रखा और फिर क्रमशः श्रेष्ठ यौवनवय प्राप्त किया। उसके बाद पूर्व निदान के कारण अमर्यादित उग्र सौभाग्य को प्राप्त किया। वहाँ जहाँ-जहाँ घूमने लगा, वहाँ-वहाँ उसके ऊपर कटाक्ष फेंकतीं, काम के परवश बनीं बहुत हाव-भाव विभ्रम और विलासयुक्त चेष्टा करतीं तथा निर्लज बनी हुईं स्त्रियाँ विविध क्रीड़ा करतीं घर का कार्य भी भूल जाती थीं। फिर 'हमारा पति यही होगा अथवा तो अग्नि का शरण होगा।' ऐसा बोलती अत्यन्त दृढ़ स्नेह वाली, राजा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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