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________________ २५० श्री संवेगरंगशाला __काया क्लेश :-आगम विधि से शरीर को कसना वह काया क्लेश है। सूर्य को पीछे रखकर, सन्मुख रखकर, ऊपर रखकर अथवा तिरछा रखकर, दोनों पैर समान रखकर या एक पैर ऊंचा रखकर या गिद्ध के समान नीचे दृष्टि से लीन बनकर खड़े रहना इत्यादि, तथा वीरासन, पर्यंकासन, समपूतासन=एक समान बैठना, गौदोहिकासन या उत्कटूकासन करना, दण्ड के समान लम्बा सोना, सीधा सोना, उल्टा सोना, और टेढ़ा काष्ठ के समान सोना, मगर के मुख समान या हाथी की सूंड के समान ऊर्वशयन करना, एक तरफ शयन करना, घास ऊपर, लकड़ी के पटरे ऊपर, पत्थर शीला ऊपर या भूमि उपर सोना। रात्री को नहीं सोना, स्नान नहीं करना, उद्वर्तन नहीं करना, खुजली आने पर भी नहीं खुजलाना । लोच करना, ठण्ड में वस्त्र रहित रहना और गर्मी में आतापना लेना इत्यादि काया क्लेश तप विविध प्रकार का जानना । स्वयं दुःख सहन करना काया का निरोध है, इससे जीवों की दयाभाव उत्पन्न होता है, और परलोक हित की बुद्धि है, तथा अन्य को धर्म के प्रति अतिमान प्रगट होता है इत्यादि अनेक गुण होते हैं। इस वेदना से भी अनन्ततर अधिक कष्टकारी वेदनाएं नरकों में परवश के कारण सहन करनी पड़ती हैं, उसके अपेक्षा इसमें क्या कष्ट है ? ऐसी भावना के बल से संवेग प्रगट होता है, उसकी बुद्धि, रूप, गुण वाले को यह काया क्लेश तप संसारवास का निर्वेद उत्पन्न कराने के लिये रसायण है। अब संलीनता तप कहते हैं। - संलीनता :-अर्थात् संवर करना अथवा अपने अंगोपांगों को सिकोड़ना, संकोच करना संलीनता है। उसमें प्रथम वसति संलीनता है, वह इस प्रकारवृक्ष के नीचे, आराम गृह में, उद्यान में, पर्वत की गुफा में, तापस आदि के आश्रम में, प्याऊ और शमशान में, शून्य घर में, देव कुलिका में अथवा माँगने पर दूसरे को दिया हुआ मकान में उद्गम, उत्पादन और ऐषणा दोष से रहित और इससे ही मूल से अन्त तक में साधु के निमित्त अकृत, अकारित और अनुमति बिना की होती है । पुनः वह वसति भी स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित होती है, शीतल या उष्ण, ऊंची, नीची या सम, विषम भूमि वाली होती है, नगर, गाँव आदि के अन्दर अथवा बाहर हो, जहाँ मंगल या पापकारी शब्दों के श्रवण से ध्यानादि में स्खलना या स्वाध्याय, ध्यान में विघ्न न होता हो, ऐसी वसति को विविक्त शय्या संलीनता तप कहते हैं। क्योंकि ऐसी वसति में प्रायः स्व-पर उभय से होने वाले राग-द्वेषादि दोष उत्पन्न नहीं होते हैं। अब इन्द्रिय संलीनता कहते हैं कि-ऊपर के कथन अनुसार गुणकारी बस्ती में रहते हुए भी इन्द्रिय आदि को वश करके संलीनता से आत्मा का सम्यग् चिन्तन
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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