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________________ २४६ श्री संवेगरंगशाला पन्द्रहवाँ संलेखना द्वार :-यहाँ पर श्री जैनेश्वरों ने संलेखना को तपश्चर्या बतलाया है। क्योंकि उससे अवश्य शरीर कषाय आदि पतले कर सकते हैं। यद्यपि सामान्यतः सर्व तपस्या संलेखनाकारक होती है। फिर भी यह अन्तिम काल में ही स्वीकार किया जाता है, यही इसकी विशिष्टता है। यह अन्तिम तपस्या भी अति लम्बे काल के लिए दुःसाध्य है, इसलिये व्याधि उपसर्ग में चारित्र रूपी धन को विनाश करने वाला कोई अन्य कारण में, अथवा कान आदि किसी इन्द्रिय का विषय विनाश हुआ हो, अथवा भयंकर दुष्काल पड़ा हो, तब धीर साधु और श्रावक के करने योग्य है। क्योंकि इस संसार में आनन्दादि महासत्त्व वाले श्रावक को अति लम्बे काल निर्मल श्रावक धर्म को पालकर अन्त में आगम कथित विधिपूर्वक सम्यक् संलेखना को करके उन्होंने उग्र क्रिया की आराधना करके क्रमशः श्रेष्ठ और महान् कल्याण परम्परा को प्राप्त किया है। और पूर्व के महापुरुष ऋषियों ने भी दीक्षा से लेकर जीवन तक निश्चय दुश्चर चारित्र को भी चिरकाल पालन कर किलष्ट तप को करके अन्तकाल में पुनः विशेष तपस्या से दिव्य शरीर और भाव की अर्थात् कषाय आदि की संलेखना करते हुये काल करके सिद्धि पद प्राप्त किया है, ऐसा सुना जाता है। और श्री ऋषभ स्वामी आदि तीर्थंकर थे। तीन जगत के तिलक समान थे। देवों से पूज्यनीय थे। अप्रतिहत केवल ज्ञान के किरणों द्वारा जगत का उद्योत करने वाले थे, और वे अवश्यमेव सिद्धि पद प्राप्त करने वाले थे। फिर भी निर्वाणकाल में निश्चय सविशेष तप करने में परायण थे। श्री ऋषभ देव परमात्मा ने निर्वाण के समय अर्थात् अन्तिम क्रिया में चौदह भक्त अर्थात् छह उपवास से, श्री वीर परमात्मा ने षष्ठ भक्त-दो उपवास और शेष बाईस भगवानों ने एक मासिक तप से हुआ था। इसलिये उस तप का पक्षपात करने वाले, मोक्ष प्राप्त की इच्छा वाले एवम् भवभीरू अन्य आत्मा को भी उन पूर्व पुरुषों के क्रमानुसार संलेखना करना योग्य है। किन्तु तपस्या बिना प्रायः शरीर पुष्ट मांस रुधिर की पुष्टिता को नहीं छोड़ेगा, इसलिए प्रथम यह तप करना चाहिए। क्योंकि पुष्ट मांस रुधिर वाले को अनुकूल होने के कारण वह किसी कारण से अशुभ प्रवृत्ति में प्रबल कारण रूप मोह का उदय होता है। और उसके उदय होने से यदि विवेकी भी दीर्घ दृष्टि बिना का, और तप नहीं करने वाले के लिए तो पूछना ही क्या ? इस कारण से जैसे शरीर को पीड़ा न हो, मांस-रुधिर की पुष्टि भी न हो और धर्म ध्यान की वृद्धि हो। इस तरह संलेखना करनी-शरीर को गलाना चाहिये।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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