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________________ २३४ श्री संवेगरंगशाला ही ठण्डे वृक्ष की छाया की ओर जाता है, वहाँ वृक्ष के नीचे रहे महासात्त्विक, विचित्र-नय सप्तभंगी से युक्त, दुर्जय सूत्र शास्त्र का परावर्तन करते, पद्मासन में बैठे हुए धीर और शान्त मुद्रा वाले चारण मुनि को देखा। 'हे भगवन्त ! विषय विष वाले सर्प के जहर से व्याकुल मुझे इस समय आपका ही शरण हो।' ऐसा कहते हुए वह बेहोश होकर वहीं पर ही नीचे गिर पड़ा। उसके बाद जहर से बेहोश बने उसे देखकर उस महामुनि ने 'करूँगा' ऐसा विचार किया कि–'अब क्या करना योग्य है ? सर्व जीवों को आत्म-तुल्य मानने वाला, साधुओं को पाप कार्यों में रक्त गृहस्थो की उपचार सेवा में प्रवृत्ति करना योग्य नहीं है। क्योंकि उसकी सेवा करने के निष्पाप जीवन वाले साधुओं को भी गृहस्थ जो-जो पाप स्थानक को सेवन करे उसमें उसके प्रति रागरूपी दोष से निमित्त कारण बनता है। परन्तु यदि उपचार करने के बाद वह गृहस्थ तुरन्त सर्व संग छोड़कर प्रवज्या स्वीकार करके सद्धर्म के कार्यों में उद्यम करें तो उनकी की हई निर्जरा भी मुनि को होती है।' ऐसा विचार करते उस साधु की दाहिनी आँख सहसा निमित्त बिना ही फड़कने लगी। इससे उसने उपकार होने की सम्भावना करके उसके पैर के अन्दर ऊपर के भाग में सूक्ष्म और विकार रहित सर्प के डंख को देखकर उस महामुनि ने चिन्तन किया कि-निश्चय यह जीयेगा। क्योंकि-सर्प दंश का स्थान विरुद्ध नहीं है, शास्त्र में मस्तक आदि को ही विरुद्ध कहा है। वह इस प्रकार से मस्तक, लिंग, चिबुक अर्थात् होंठ के नीचे भाग में, गले, शंख, नेत्र और कान के बीच-कनपटी में तथा अंगूठे, स्तन भाग में, होंठ, हृदय, भकूटी, नाभि, नाक, हाथ, पैर के तलवे में, कन्धा, नख, नेत्र, कपाल, केश और संघी स्थान पर यदि सर्व डंख लगा हो तो यम के घर जाता है। तथा पंचमी, अष्टमी, षष्ठी, नवमी और चतुर्दशी की तिथियों में यदि सर्प डंख लगा हो तो पखवारे में मरता है। परन्तु आज तिथि भी विरुद्ध नहीं है, नक्षत्र भी मद्या, विशाखा, मूल, आश्लेषा, रोहिणी, आर्द्रा और कृतिका दुष्ट है, वह भी इस समय नहीं है और पूर्व मुनियों ने सर्प डंख लगने से मनुष्य को इतने अमंगल कहे हैं। शरीर कंप, लाल पड़ना, उबासी, आँखों की लाली, मूर्जा, शरीर टूटना, गाल में कृशता, कान्ति कम हो, हिचकी और शरीर की शीतलता, यह तुरन्त मृत्यु के लिये होती हैं। इसमें से एक भी अमंगल नहीं दिखता है। इसलिए इस भव्य आत्मा के विष का प्रतिकार करूं। क्योंकि-जैन धर्म दया प्रधान धर्म है। ऐसा विचार कर ध्यान से नम्र बनाये स्थिर नेत्रों वाले वह महामुनि सम्यक्
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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