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________________ २३२ श्री संवेगरंगशाला तना स्वजन में बोले अथवा नहीं भी बोले । अन्यथा यथातथा परस्पर बातों में आकर्षित चित्त प्रवाह वाला किसी आराधक को भी प्रमाद से प्रस्तुत अर्थ में अर्थात् आराधना में विघ्न भी हो, इससे आराधना करने की इच्छा वाले उसमें ही एकचित्त वाले श्रेणी का प्रयत्न करे, क्योंकि इस श्रेणी का नाश होने से स्वयंभूदत्त के समान आराधना नाश होती है, वह इस प्रकार है : स्वयंभूदत्त की कथा I कंचनपुर नगर में स्वयंभूदत्त और सुगुप्त नामक परस्पर दृढ़ प्रीति वाले और लोगों में प्रसिद्ध दो भाई रहते थे । अपने कुलक्रम के अनुसार से, शुद्ध वृत्ति से आजीविका को प्राप्त कर वे समय सुखपूर्वक व्यतीत करते थे । एक समय क्रूर ग्रह के वश बरसात के अभाव से नगर में अति दुःखद भयंकर दुष्काल गिरा । तब बहुत समय से संग्रह किया हुआ बहुत बड़ा जंगी घास का समूह, और बड़े-बड़े कोठार खत्म हो गये । इससे कमजोर पशुओं को और मनुष्यों को देखकर उद्विग्न बने राजा ने नीतिमार्ग को छोडकर अपने आदमियों को आज्ञा दी कि - अरे इस नगर में जिसका जितना अनाज संग्रह हो उससे आधाआधा जबरदस्ती जल्दी ले आओ। इस तरह आज्ञा को प्राप्त कर और यम के समान भृकुटी रचना भयंकर उन राजपुरुषों ने सर्वत्र उसी प्रकार ही किया । इससे अत्यन्त क्षुधा से धन-स्वजन के नाश से, और अत्यन्त रोग के समूह से व्याकुल लोग सविशेष मरने लगे, और घर मनुष्यों से रहित बनने के कारण, गली धड़-मस्तक से दुर्गम बनने के कारण एवम् लोगों को अन्य स्वस्थ देशों में जाने के कारण वह स्वयंभूदत्त भी अपने भाई सुगुप्त सहित नगर में से निकलकर प्रदेश जाने के लिये एक सार्थवाह के साथ हो गया । साथ ही लम्बा रास्ता पार करने के बाद जब एक अरण्य में पहुँचे, तब युद्ध में तत्पर शस्त्रबद्ध भिल्लो का धावा आ गया। जोर से चिल्लाते, भयंकर धनुष्य ऊपर चढ़ाये हुये बाण वाले, बाँधे हुए मस्तक के ऊँचे चोटी वाले, यम ने भेजे हों इस तरह, तमाल ताड़ के समान काले, शत्रुओं को नाश करने में समर्थ, चमकती तेजस्वी तलवार वाले, इससे मानो बिजली सहित काले बादलों की पंक्ति हो इस तरह भयंकर, जंगली हाथियों को नाश करने वाले, हिरणों के मांस से अपना पोषण करने वाले मांसाहारी, उत्तम लोगों को दुःखी करने वाले, और युद्ध करने में एक सदृश रस रखने वाले, उन्होंने एकदम धावा बोल दिया । फिर युद्ध में समर्थ सार्थपति के सुभट भी भाले, तलवार, बरछी आदि शस्त्र हाथ में लेकर उसके साथ युद्ध करने लगे । इसमें बलवान समर्थ सुभट मरने लगे । कायर पुरष डर
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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