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________________ श्री संवेगरंगशाला २२१ कर उत्तर अथवा पूर्व में मुख रखकर और मस्तक पर अंजलि करके, विशुद्ध चित्त वाला वह श्री अरिहंत आदि के समक्ष आलोचना लेकर चारों प्रकार के आहार का त्याग करे | अपने शरीर के अवयव को लम्बे-चौड़े किये बिना ही क्रियाओं को स्वयं करे, जब उपसर्ग रहित हो तब बड़ी नीति आदि को सम्यग् स्वयं परिष्ठापन ( परठवे ) करे और उसे जब देवता या मनुष्यों के उपसर्ग हों तब लेशमात्र भी कम्पायमान बिना निमय उस उपसर्गों को सहन करे । इस तरह प्रतिकुल उपसर्ग सहन करने के बाद किन्नर, किं पुरुष आदि व्यंतरों की देव कन्याएँ भोगादि की अनुकूल प्रार्थना करे, तो भी वह क्षोभित न हो तथा वह मान सन्मानादि ऋद्धि से विस्मय को नहीं करे, और उसके शरीरादि के सर्व पुद्गल दुःखदायी बने- पीड़ा दे तो भी उसे ध्यान में थोड़ी भी विश्रोतसिका ( स्खलना) न हो, अथवा उसको सर्व पुद्गल सुखरूप में बने तो भी उसे ध्यान में भंग नहीं होता है । उपसर्ग करने वाला कोई उसे यदि जबरदस्त सचित्त भूमि में डाले तो वहाँ भाव से शरीर मुक्त होकर, शरीर से आत्मा को भिन्न मानकर उसकी उपेक्षा करे, और जब उपसर्ग शान्त हो, तब यत्नपूर्वक शुद्ध निर्जीव - अचित्त भूमि में जाए। सूत्र की वाचना, पृच्छना, परावर्तना और धर्मकथा को छोड़कर सूत्र और अर्थ उभय पोरिसी में एकाग्र मन वाला सूत्र का स्मरण करे ? इस तरह आठ प्रहर स्थिर एकाग्र, प्रसन्न चित्त वाला ध्यान को करे, और बलात्कार से निद्रा आये तो भी उसे थोड़ी भी स्मृति का नाश न होता है । सज्ज्ञाय कालग्रहण, पडिलेहण आदि क्रियाएँ उनको नहीं होती हैं, क्योंकि उसे शमशान में भी ध्यान का निषेध नहीं है । वह उभयकाल आवश्यक को करे जहाँ शक्य हो, वहाँ उपधि को पडिलेहण करे और कोई स्खलना हो उसका मिच्छामि दुक्कड़ करे । वैक्रिय आहारक, चारण अथवा क्षीराव आदि लब्धियों को यदि कोई कार्य आ जाए तो भी वैरागी भाव से उसे उपयोग नहीं करे। मौन का अभिग्रह में रक्त होने पर भी आचार्यादि के प्रश्नों का उत्तर दे और यदि देव तथा मनुष्य पूछे तो धर्म कथा करे । इस तरह शास्त्रानुसार से इंगिनी मरण को सम्यग् रूप कहा है । अब संक्षेप से ही सत्तरहवाँ पादपोपगमन मरण को कहता हूँ । १७. पादपोपगमन मरण : मरण के प्रकार में निश्चय वृक्ष के समान जहाँ किसी स्थान में अथवा जिस किसी आकृति में रहने का अभिग्रह को पादपोपगमन मरण कहते हैं। जिस अंग को जहाँ जिस तरह रखे, उसे वहाँ उसी तरह धारण करना, हलन चलन नहीं करना, वह पादपोपगमन मरण नीहार और अनीहार इस तरह दो प्रकार का होता है । उसमें उपसर्ग द्वारा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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