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________________ श्री संवेगरंगशाला २१५ जयसुन्दर और सोमदत्त की कथा नरविक्रम राजा से रक्षित वैदेशात नगरी में सुदर्शन नामक सेठ था। उसके दो पुत्र थे, प्रथम जयसुन्दर और दूसरा सोमदत्त । दोनों कलाओं में कुशल और रूप आदि गुणयुक्त थे। परस्पर स्नेह से परिपूर्ण चित्त वाले और उत्कृष्ट सत्त्व वाले वे दोनों इसलोक और परलोक से अविरुद्ध-उत्तम कार्यों में प्रवृत्ति करने वाले थे । एक समय में बहुत बड़ा मूल्य का अनाज लेकर बहुत मनुष्य के परिवार सहित वे अहिछत्रा नगरी गये। वहाँ रहते परस्पर व्यापार करने से उनका जयवर्धन सेठ के साथ सद्भावना युक्त मित्रता हो गई। उस सेठ की सोमश्री और विजयश्री नाम की दो पुत्री थीं। उस सेठ ने उनको दीं, और विधिपूर्वक दोनों का विवाह किया। उसके बाद वे उन स्त्रियों के साथ सज्जनों के आनन्दनीय समयानुरूप पाँच प्रकार के विषय सुख भोगते वहाँ रहते थे। एक समय अपनी वैदेशा नगरी से आये हुये पुरुष ने उनको कहा कि 'अरे ! आप शीघ्र घर चलो। इस तरह तुम्हारे पिता ने आज्ञा दी है। क्योंकि सतत् श्वास, खाँसी, आदि कई रोगों से पीड़ित वह शीघ्र तुम्हारे दर्शन करना चाहता है।' ऐसा सुनकर उन्होंने ससुर को वृत्तान्त कहकर, पत्नियों को वहीं रखकर, उसी समय पिता के पास पहुँचने के लिए शीघ्र चल दिये। अखण्ड प्रस्थान करते वे अपने घर पहुंचे, और वहाँ परिवार को शोक से निस्तेज मुख वाला शोकातुर देखा, घर को भी शोभा रहित अति भयंकर शमशान देखा और दीन अनाथों की दानशाला के लिए रोके हुए नौकरों से भी रहित देखा। हा ! हा ! इस दुःख का लम्बा श्वास लेते-हमारे पिता निश्चित मर गये हैं, इससे यह घर सूर्यास्त के बाद का कमल वन के समान आनन्द नहीं देता है। ऐसा विचार करते उनको दासी ने दिये हुये आसन्न पर बैठे । इतने में अत्यन्त शोक के वेग से अश्रभीनी आँखों वाले परिजनों ने पैर में नमन कर उनको पिता के मरण के अति शोकजनक बात सम्पूर्ण की। इससे वे मुक्त कण्ठ से बड़ी आवाज से रोने लगे और परिवार ने मधुर वाणी द्वारा महा मुश्किल से रोते रोका। फिर उन्होंने कहा कि-बहत प्रीति को धारण करने वाले पिता श्री ने निष्पुण्यक हमारे लिये क्या उपदेश देकर गये हैं ? वह कहो। यह सुनकर शोक के भार से गदगद वाणी वाले परिवार ने कहा कि तुम्हारे दर्शन की अत्यन्त अभिलाषा वाला 'वह मेरा पुत्र आयेगा, तब उनके आगे मैं यह कहूंगा और वह करूंगा' ऐसा बो नते पिता जी को हमने पूछा, फिर भी हमको कुछ भी नहीं कहा और अति प्रचण्ड रोग के वश तुम्हारे आने के पहले ही वह
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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