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________________ १८८ श्री संवेगरंगशाला सुस्थित घटना नामक यह पांचवाँ अन्तर द्वार कहा है । अब छठा आलोचना द्वार कहते हैं । छठा आलोचना द्वार : - सद्गुरू के कहे अनुसार आराधना करने में उद्यमशील बना महा सात्त्विक वह उत्तम श्रावक दुर्ध्यान के आधीन बनकर ऐसा चिन्तन नहीं करे कि - मैंने बार-बार अनेकशः बहुत सद्गुरू के पास आलोचना भी ली और प्रायश्चित भी पूरे किये, सारी क्रियाओं में जयणापूर्वक आचरण किया, अब मुझे कुछ अल्प भी आलोचलना योग्य नहीं है, ऐसा चिन्तन नहीं करे । परन्तु महा मुश्किल से समझ में आये ऐसी सूक्ष्म अतिचार की भी संशुद्धि के लिए उस समय पर एक चारित्र के अतिचारों के उद्देश्य से आलोचना दी जाती है । ज्ञान, दर्शन, तप और वीर्य । इन चार आचारों की आलोचना तो साधु के समान पूर्व में कहे अनुसार विधि से दी जाती है । इसलिए देश चारित्र श्रावक प्रथम व्रत में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के प्रत्येक और अनन्तकाय रूप दो प्रकार की वनस्पति के, तथा दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रिय वाले जीवों की विराधना के अतिचार को कह सुनाना चाहिये । उसमें पृथ्वी आदि पाँच को प्रमाद दोष से किसी तरह उसकी सम्यग् जयणा नहीं की, उसे शास्त्र विधि से आलोचना करे । और दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रिय वाले जीवों को परितापदुःख आदि देने से जो अतिचार या व्रत का भंग हुआ हो, उसे भी हित का अर्थी प्रगट रूप में निवेदन करे । मृषावाद विरमण में अभ्याखान आदि के, अदत्तादान (चोरी) विरमण दृष्टि वंचन आदि का, चौथे व्रत में (स्त्रियों को पुरुष के समान) स्वप्न में भी विजाति साथ क्रीडा या अंग स्पर्श आदि तथा स्वपत्नी के सिवाय अन्य स्त्री के साथ हँसी अथवा गुप्त अंग का स्पर्श आदि, एवं विवाह, प्रेम करना, इत्यादि जो कुछ हुआ हो उन सब अतिचार की आलोचना लेना चाहिए, तथा धन धान्यादि नौ प्रकार का परिग्रह प्रमाण में लगे हुए अतिचार को, और दिशि परिमाण में, प्रमाण से अधिक भूमि में स्वयं जाने से अथवा दूसरे को भेजने से जिस क्षेत्रादि का उल्लंघन किया हो उसे सम्यग् रूप आलोचना करना । उपभोग परिभोग में, अनन्तकाय, बहुबीज आदि के भोजन से लगे हुये अतिचारों को तथा कर्मादानों में अंगार कर्म आदि परकर्मों की आलोचना करना । अनर्थ दण्ड में तेल आदि की रक्षा में किया हुआ प्रमाद अथवा पाँच प्रकार का, और पापोपदेश, हिंसक शस्त्रादि प्रदान, तथा जो दुर्ध्यान किया हो, उसकी सम्यग् प्रकार से आलोचना करना । सामायिक व्रत में सचित्तादि स्पर्श आदि करना । मन, वचन, काया का हुये प्रणिधान आदि का छेदन, भेदन इत्यादि करना । चखले की दण्डी से कुतूहल
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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