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________________ श्री संवेगरंगशाला १६५ ऐसे योग्य किसी घर जो पूर्व में तैयार हुई मिल जाये तो उसे ही विशेष सुधार करवा दे और वही प्रशस्त धर्म का अर्थ चिन्तन में मन को स्थिर करके, पाप कार्यों का त्याग में उद्यमी बने, योग्य पात्र गुरू आदि को प्राप्त करके किसी समय पढ़ने में, किसी समय प्रश्न पूछने में तो किसी समय परिवर्तन में, किसी समय शास्त्रों के परमगूढ़ अर्थ के चिन्तन में (अनुप्रेक्षा में) किसी समय ध्यान में तो किसी समय वीरासन आदि अनुकूल आसन से आसन बंध द्वारा गात्र को संकोच करते मौन में, किसी समय भावनाओं के चिन्तन में तो किसी समय सद्धर्म के श्रवण द्वारा समाधि में इस तरह काल को व्यतीत करे और सिद्धान्त के महारहस्य रूपी मणियों के भंडार स्वरूप मुनि के प्रति सत्कार भक्ति वाला स्वयं उचित समय जाकर उनकी सेवा करे । तथा 'हे तात् ! कृपा करो, अनुग्रह करो और अब भोजन लेने मेरे घर पधारो।' इस तरह भोजन के समय पुत्र विनयपूर्वक निवेदन करे तब स्थिर मन वाला विधि से धोरे-धीरे चलते घर जाकर मूर्छा रहित भोजन करे तथा यदि सामर्थ्य हो तो आत्महित को चाहने वाला बुद्धिमान श्रेष्ठ वीर्य के वश सविशेष उद्यम वाला बनकर श्रावक की प्रतिमाओं को स्वीकार करे। मोह का नाश करने वाली श्री जैनेश्वरों ने 'दर्शन प्रतिमा' आदि श्रावक की संख्या से ग्यारह प्रतिमा कही हैं वह इस प्रकार हैं : श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ :-(१) दर्शन प्रतिमा, (२) व्रत प्रतिमा, (३) सामायिक प्रतिमा, (४) पौषध प्रतिमा, (५) प्रतिभा प्रतिमा, (६) अब्रह्म वर्जन प्रतिमा, (७) सचित्त वर्जन, (८) स्वयं आरम्भ वर्जन प्रतिमा, (६) प्रेष्यनौकर वर्जन प्रतिमा, (१०) उद्दिष्ट वर्जन प्रतिमा, और (११) श्रमण भूत प्रतिमा । ये ग्यारह प्रतिमाएँ हैं। १. दर्शन प्रतिमा का स्वरूप :-पर्व कहे अनसार गुणरूपी रत्नों से अलंकृत वह महात्मा श्रावक प्रथम दर्शन प्रतिमा को स्वीकार करे और उस प्रतिमा में मिथ्यात्व रूपी मैल नहीं होने से दुराग्रहवश होकर उस सम्यक्त्व को कलंक लगे अल्प भी आचरण नहीं करे, क्योंकि उस दुराग्रह के साधना में मित्थात्व ही समर्थ है और इस प्रतिमाधारी धर्म में उपयोग शन्य न हो तथा विपरीत आचरण न करे तथा वह आस्तिक्य आदि गुण वाला, शुभ अनुबन्ध वाला एवम् अतिचार रहित होता है। यहाँ प्रश्न करते हैं कि :-पूर्व में जिस गुण समूह का प्ररूपण किया, ऐसे श्रावक को सम्यक्त्व होने पर भी पुनः यह दर्शन प्रतिमा क्यों कही ? इसका उत्तर देते हैं कि-इस दर्शन प्रतिमा में राजाभियोग आदि छह आगारों को सर्वथा त्याग है और आठ प्रकार के दर्शनाचार के सम्यकप का सम्पूर्ण पालन करता है । इस तरह यहाँ पर
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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