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________________ १५६ श्री संवेगरंगशाला दुःखी ही होता है और उपयोग रूप उपायों में तत्पर जो मनुष्य विषय तृष्णा को समभाव चाहता है, वह मध्याह्न बाद अपनी छाया को पार करने के लिए आगे दौड़ता है अर्थात् मध्याह्न के बाद सन्मुख छाया की ओर जैसे-जैसे आगे दौड़ेगा वैसे-वैसे बढ़ती ही जायेगी। वैसे विषय भोग से जो इच्छा को पूर्ण करना चाहता है, उसकी इच्छा भी बढ़ती ही जाती है। तथा जो अच्छी तरह भोगों को भोग कर, प्रिय स्त्रियों के साथ की हुई क्रीड़ा को और अत्यन्त प्रिय शरीर को भी हे जीव ! कभी भी छोड़ना ही है, चिरकाल स्वजन-कूट्रम्ब के साथ रहकर भी, दुष्ट मित्रों के साथ क्रीड़ा करके भी, और चिरकाल शरीर का लालन-पालन करके भी, इन सबको छोड़कर ही जाना है। इष्ट मनुष्य धन-धान्य, मकान-दुकान, हवेली और मन को हरण करने में चोर समान, अति मनोहर ठगने वाले विषयों को एक साथ एक समय में छोड़ना है, तो भी मुझे देखा अनदेखा करना क्या योग्य है ? मन्द पुण्य वालों को सैंकड़ों भवों में दुर्लभ श्री अरिहंत देव, सुसाधु गुरूदेव, जैनधर्म में विश्वास, धर्मीजन का परिचय, निर्मल ज्ञान और संसार के प्रति वैराग्य, इत्यादि परलोक साधक करनी को भी मैंने सम्यक् रूप आचार कर अब महान् पुण्य मुझे वह मिला है, तो वर्तमान में आत्म कल्याण के लिये धर्म की सविशेष आराधना करना योग्य है। इस प्रकार करने की इच्छा वाला हूँ तो भी घर के विविध कार्यों में नित्य बन्धन में पड़ा हुआ और पुत्र, स्त्री में आसक्त मैं वैसे आराधना को निर्विघ्नता से नहीं कर सकता हूँ। अतः जब तक अद्यपि वृद्धावस्था नहीं आती, व्याधियाँ पीडित नहीं करतीं, जब तक शक्ति भी प्रबल है, समग्र इन्द्रियों का समूह भी अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ है, जब तक लोग अनुरागी हैं, लक्ष्मी भी जहाँ तक स्थिर है, जब तक इष्ट का वियोग नहीं हुआ और जब तक यम राजा जागृत नहीं हुआ, जहाँ तक परिवार की दरिद्रता के कारण भविष्य में सम्भवित धर्म की निन्दा न हो उसके लिए तथा निर्विघ्न से निरवद्य धर्म के कार्यों की साधना कर सकूँ । उसके लिये मेरे ऊपर कुटुम्ब के भार को स्वजन आदि की सम्मति पूर्वक पुत्र को सौंप कर उसके मोह को मन्द करके, उस पुत्र की परिणति अथवा भावी परिणाम के देखने के लिए अमुक काल पौषधशाला में रहे और अपनी भक्ति तथा शक्ति के अनुसार श्री जैनेश्वर देवों की अवसरोचित उत्कृष्ट पूजा करने, रूप द्रव्यस्तव सिवाय के अन्य आरम्भों के कार्यों को मन, वचन, काया से अल्प मात्र भी करना, करवाने का त्याग करके निश्चय आगम विधि अनुसार शुद्ध धर्म कार्यों को करके चित्त को सम्यक् वासित करता हूँ, इस तरह कुछ समय निर्गमन करूँगा, इसके बाद सर्व प्रयत्न
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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