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________________ श्री संवेगरंगशाला १४६ वाला है, परन्तु विषयों की वृद्धि से नजदीक भविष्य में मृत्यु होगी, क्योंकित व्यायाम नहीं करता है, शिष्ट पुरुषों की सभा में त बैठता नहीं है, और कभी देव मन्दिर या धर्म स्थान में तू परिचय नहीं करता है । हे पुत्र! हमेशा विषय इच्छा से वासुदेव भी मृत्यु के सन्मुख जाता है, तो कमल फूल के पत्तों समान कोमल शरीर वाला तू कौन-सी गिनती में है ? मैं इसी कारण से यह कह रही हूँ, दुर्लभ प्राप्त भी अन्य वस्तु इस संसार में भाग्ययोग से मिल जाती है, परन्तु तेरे समान पुरुष रत्न पुनः कहाँ से मिलेगा ? इसलिए हे पुत्र ! तुझे प्रतिदिन दुर्बल होते देखकर ही इस चिन्ता से ही मैं शोक संतप्त रहती हूँ। स्वच्छ स्वभाव होने से ताराचन्द्र ने उसका कहना स्वीकार किया, केवल एकान्त में पूत्री से उसे कहा 'यह सारा कपट है' ऐसा जानकर प्रतिदिन वह पूर्व के समान ही रहने लगा। इससे अक्का ने विचार किया कि-यह पापीष्ठ जहर आदि से भी मरा नहीं है और यदि इसे शस्त्र से मार दूं तो निश्चय पुत्री भी मर जायेगी। अरे रे ! यह कैसा महासंकट आ गया है ? इसको रोकना भी मुश्किल है। इस तरह शोक से व्याकुल चित्तवाली वह घर में नहीं रहने से दासियों को साथ लेकर नगर के उद्यान को देखने लगी, और इच्छानुसार इधर-उधर घूमती समुद्र किनारे पहँची, वहाँ उसने परदेश से आया हुआ एक जहाज देखा। उसमें आये हये मनुष्यों को पछा-आप यहाँ कहाँ से आये हैं और कहाँ जाना है ? उन्होंने कहा-हम बहुत दूर से आये हैं और आज रात को जायेंगे। यह सुनकर उसने विचार किया कि- अरे अन्य योजना से क्या लाभ है, अति गाढ़ निद्रा में सोए हुये ताराचन्द्र को रात्री में इस जहाज में चढ़ा दो, कि जिससे वह दूर अन्य देश में पहुँच जाए कि फिर वापिस नहीं आये, ऐसा करने से मेरी पुत्री प्राणों का भी त्याग नहीं करेगी। फिर जहाज के मालिक को उसने एकान्त में कहा-पुत्र सहित मैं आपके साथ जाऊँगी। उसने भी कहा-हे माता ! यदि तुम्हें आने की इच्छा हो तो मध्य रात्री में आज जहाज प्रस्थान करेगा। उसने स्वीकार किया और घर गई, फिर जब मध्य रात्री हुई और पुत्री सो रही थी, तब अपने पलंग पर गाढ निन्द्रा में सोये हुये ताराचन्द्र को धीरे से दासियों द्वारा पलंग सहित उठवाकर पलंग साथ उसे जहाज के एक विभाग में रखा, और उसने जहाज के नायक को कहा-यह मेरा पुत्र है और यह मैं भी आई हूँ, अब तू ही एक हमारा सार्थवाह रक्षक है। जहाज के मालिक ने 'हाँ' कहा। फिर अनेक जात के कपटों से भरी हुई, वह वहाँ के मनुष्यों की नजर बचाकर जैसे आई थी वैसे शीघ्र वापिस चली गई।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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