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________________ श्री संवेगरंगशाला १४७ हे कामदेव के विजेता! सावधकार्यों के राग बन्धन को छोड़ने वाले ! संयम के भार को उठाने वाले ! और समाधिपूर्वक मोहरूपी महाग्रह को वश करने वाले, हे मुनिश्वर ! आप विजयी रहो ! देव और विद्याधरों से वंदनीय ! रागरूपी महान हाथी को नाश करने में सिंह समान और स्त्रियों के तीक्ष्ण कटाक्ष रूपी लाखों बाणों से भी क्षोभित नहीं होने वाले हे महामुनिश्वर ! आपकी जय हो! तीव्र दुःखरूपी अग्नि से जलते प्राणियों के अमृत की वर्षा समान ! भाश नामक वनस्पति के उज्जवल पुष्पों के प्रकाश सदृश, उछलते उज्जवल यश से दिशाओं को भी प्रकाशमय बनाने वाले हे मुनिश्वर ! आप श्री जी की जय हो। कलिकाल के फैले हये प्रचण्ड अन्धकार से नाश होते मोक्ष मार्ग के प्रकाशक प्रदीप रूप ! महान् गणों रूपी असामान्य श्रेष्ठ रत्न समूह के निधान हे मुनिश्वर ! आप विजयी बनो ! हे नाथ ! रोग से पीड़ित देह के त्याग के लिये भी मेरा आगमन आपके चरण कमल के प्रभाव से आज निश्चय सफल हुआ है, इसलिए हे जगत् बन्धु ! आज से आप ही एक मेरे माता, पिता, भाई और स्वजन हो, हे मुनिश्वर ! यहाँ अब मुझे जो करणीय हो वह करने की आज्ञा दो ! उसके बाद मुनिपति ने 'यह योग्य है' ऐसा जानकर कार्योत्सर्ग ध्यान पूर्ण किया और सम्यक्त्व रूप उत्तम मूल वाला, पाँच अणुव्रत रूपी महा स्कन्ध वाला, तीन गुणव्रत रूपी मुख्य शाखा वाला, चार शिक्षाक्त रूपी बड़ी प्रतिशाखा वाला, विविध नियम रूपी पुष्पों से व्याप्त, सर्व दिशाओं को यशरूपी सुगन्ध से भर देता, देव और मनुष्य की ऋद्धि रूपी फलों के समूह से मनोहर, पापरूपी ताप के विस्तार को नाश करने वाला श्री जिनेश्वरों के द्वारा कहा हुआ सद्धर्म रूपी कल्पवृक्ष का उससे परिचय करवाया और अत्यन्त शुद्ध श्रद्धा तथा वैराग्य से बढ़ते तीव्र भावना वाले उसने श्रद्धा और समझपूर्वक अपने उचित धर्म को स्वीकार किया। इस तरह ताराचन्द्र को प्रतिबोध देकर पुनः मोक्ष में एक स्थिर लक्ष्य वाले वह श्रेष्ठ मुनि काउस्सग्ग ध्यान में दृढ़ स्थिर रहे । उसके बाद 'हम ध्यान में विघ्नभूत हैं' ऐसा समझकर वह विद्याधर युगल और ताराचन्द्र तीनों विनयपूर्वक साधु को वन्दन कर बाहर निकल गये । फिर 'यह सार्मिक बन्धु है' इस तरह स्नेह भाव प्रगट होने से उस विद्याधर ने ताराचन्द्र को जहर आदि दोषों को नाश करने वाली गोली देकर कहा-अहो महाभाग ! तू इस गोली को निगल जा और इसके प्रभाव से विषकार्मण आदि का भोग बना है इससे तू निर्भय और निःशंकता से पृथ्वी ऊपर भ्रमण कर । ताराचन्द्र ने उसे आदरपूर्वक स्वीकार किया, और विद्याधर युगल आकाश मार्ग में उड़ गया तथा प्रसन्न बने ताराचन्द्र ने उस गोली को खा लिया, फिर
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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