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________________ श्री संवेगरंगशाला १४५ गुण से प्रसन्न होकर किन्नर किन्नरियाँ शत्रु का भय छोड़कर वहाँ विलास करते हैं, और सर्व ऋतुओं के पुष्पों से शोभित एवम् फलों के समूह से मनोहर बना बन जहाँ चारों दिशा में शोभता है। ऐसा सुनकर चित्त में अत्यन्त आनंदित हुआ, 'यह तीर्थ है' ऐसा मानकर शरीर को छोड़ने की भावना वाले वह ताराचन्द्र आगे बढ़ा और पर्वत की अन्तिम ऊँचाई पर पहुँचा । विशाल शिखरों से दिशाएँ विस्तारपूर्वक ढके हुए उस पर्वत पर धीरे-धीरे सम्यग् उपयोग पूर्वक चढ़ा, फिर हाथ पैर की शुद्धि वस्त्र से करके सरोवर में से कमलों को लेकर, वस्त्र से मुख बाँधकर, उसने मणि रत्नों से देदीप्यमान श्री अजित नाथ आदि जैनेश्वरों की प्रतिमा की तथा कान्तिरूपी पानी से धोई हो ऐसी उज्जवल स्फटिकमय सिद्धशिलाओं की श्रेष्ठ पूजा की, फिर श्री जैन भगवान के चरणों की पूजा से और उस सिद्ध क्षेत्र के शुभ गुणों से बढ़ते शुभ भावना वाला, आनन्द से झरते नेत्रों वाला वह इस प्रकार स्तुति करने लगा : इस संसार में अनन्तकाल से रूढ़ हुआ मोह का नाश कर प्रबल जन्ममरण की लता का उन्मूलन करके मोक्ष मार्ग का उपदेशक जिस जैनेश्वर भगवान ने उपद्रव रहित, अचल और अनन्त सिद्धि वास किया है, वे विजयी हों, जिसके चरणों में केवल नमस्कार करके प्रभाव से भी भव्य जीव लीलामात्र में सम्पूर्ण श्रेष्ठ सुख से सनाथ युक्त होता है और जो अपनी हथेली के समान लोकालोक को देखते हैं, जानते हैं वे तीन भुवन जनों के पूज्य श्री जिनेश्वर की जय हो, इस तरह भगवान की स्तुति कर प्रसन्न हुआ वह रोग रूपी क्रीडाओं से जर्जरित हुआ शरीर का त्याग करने दूसरे ऊँचे पर्वत शिखर के ऊपर जब चढ़ता है इतने में शरद के चन्द्र समान उज्जवल, फैली हुई विशाल कान्ति का समूह वाले, अट्ठारह हजार शील रूपी रथ के भार से दबे हुये हो, इस तरह अति नम्र कायारूपी लता वाले, नीचे मुंह वाले, लम्बी की हुई लम्बी भुजा वाले, हाथ के नखों की किरण रूपी रस्सी से नरक रूपी कुएँ में गिरे हुए जीव लोक को ऊपर खींचते हो, ऐसा मेरूपर्वत के समान निश्चल, पैर की अंगलियाँ की निर्मल कान्ति वाला, दस नख के बहाने से मानो क्षमा आदि दस प्रकार के मुनि धर्म को प्रकाशित करते हो, स्फटिक रत्न की देदीप्यमान कान्ति वाली पर्वत की गुफा में रहे अति सुशोभित शरीर वाला, मानो सुख के समूह को प्रगट करने की भूमि हो ऐसे काउस्सग्ग में रहे एक साधु को देखा। फिर मृत्यु तो मेरे स्वाधीन है ही ! पहले इन मुनि को नमस्कार करूं ऐसा चिन्तन कर, सत्कार से भरे हुए आँखों वाले उस ताराचन्द्र ने साधु को नमस्कार किया। भक्तिपूर्वक नमस्कार करके जब आश्चर्य भरे, चित्त वाला वह उसके रूप को
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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