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________________ श्री संवेगरंगशाला १३६ देकर शिष्य बनवाया, शास्त्र पुस्तक को अथवा साधुओं के योग्य कोई उपकरण को भी नहीं दे सका । संसारवास से विरागी चित्तवाला भी कोई गृहस्थ वसति दान दिये बिना सदगुरु की सेवा अथवा उनके उपदेश रूपी वचन श्रवण का भी लाभ नहीं मिल सकता है। और यदि अनियत विहार के आचार को पालते साधुओं को उस क्षेत्र में आने के बाद वसति की प्राप्ति न हो तो वहाँ वे साधु कैसे रह सकते हैं ? और साधु रहे नहीं तो उभय लोक में होने वाला हितकारी वह क्षेत्र अन्य गुण साधु और गृहस्थों का भी किस तरह हो सकता है ? इसमें साधुओं को इस लोक के गुण रूप अशन पानादि की प्राप्ति आदि और परलोक में हितकर संयम का परिपालन आदि जानना। गहस्थ को भी मुनि के संग से कुसंग का त्याग आदि इस लोक में लाभ होता है और सद् धर्म का श्रवण आदि से पर भव सम्बन्धी अनेक गुण प्राप्त होते हैं। और साधु स्वयं घर को मन, वचन, काया से तैयार नहीं करते हैं। दूसरों के द्वारा नहीं करवाते है और दूसरों से किये हुए की अनुमोदना भी नहीं करते हैं। क्योंकि-सामान्य झोंपड़ी जैसा भी घर सूक्ष्म-बादर छह जीवनिकाय की हिंसा बिना नहीं बनता है इसलिए ही कहा है कि-जीवों की हिंसा किये बिना घर तैयार नहीं होता, उसकी रक्षा के लिए बाड़ का संस्थापन आदि किये बिना कैसे हो सकता है ? और जीवों की वह हिंसा करके भी ऐसा कार्य जो करता है तो संयम से भ्रष्ट होकर असंयमी गहस्थ के मार्ग में जाता है। जिसने बाजों के नाद पूर्वक महोत्सव से अनेक मनुष्य, सदगुरु और संघ के समक्षघर को छोड़ने का-हे भगवन्त ! अब मैं सामायिक लेता हूँ, सभी पाप व्यापारों को जब तक जीवत रहूँगा तब तक विविध-त्रिविध से त्याग करता हूँ" इस तरह जो महा प्रतिज्ञा की है और सर्व प्रकार से छह जीवनिकाय रक्षण में तत्पर है वह मुनि अपनी की हुई ऐसी प्रतिज्ञा को छोड़कर स्वयं घर आदि की किस तरह बात करता है। ___ इस कारण से अन्य के लिए प्रारम्भ (तैयार किया) और अन्य के लिये ही पूर्ण करना चाहिए, मन, वचन, काया से स्वयं करना नहीं, दूसरों के द्वारा करवाना नहीं, और इसी से अनुमोदन नहीं करना, इस तरह मूल-उत्तर गुण से युक्त प्रमाण युक्त स्त्री, पशु नपुसक और दुराचारियों से रहित, ऐसे पड़ोसियों से रहित, स्वाध्याय, कालग्रहण, स्थंडिल और प्रश्रवण के लिये (निरवध) भूमि से संयुक्त सुरक्षित, साधुओं के रहने योग्य पाप रहित स्थान गृहस्थ साधुओं को दे। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कारण ऐसे प्रकार की वसति न मिले तो भी सार असार (लाभ हानि) के विवेक विचारकर अल्प
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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