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________________ १३० श्री संवेगरंगशाला दुर्गता नारी की कथा देवों के मस्तक मणि की किरणों से व्याप्त चरणों वाले लोगों को चारित्र मार्ग में जोड़ने वाले, लोकालोक को प्रकाशक, करूणा रूपी अमृत के समुद्र, तुच्छ और उत्तम जीवों के प्रति सम दृष्टि वाला सिद्धार्थ नामक राजा का पुत्र था, एक समय श्री महावीर प्रभु काकंदीपुरी में पधारे, वहाँ देवों ने श्रेष्ठ, मनोहर, सुशोभित, विविध प्रकार से उज्जवल लहराती ध्वजों वाला और सिंहासन से युक्त मनोहर समवसरण की रचना की, फिर सुर असुर सहित तीन जगत के पूजनीय चरण कमल वाले, भव्य जीवों को प्रतिबोध करने वाले जगत के नाथ श्री वीरप्रभु उसमें पूर्वाभिमुख बिराजमान हुए फिर हर्षित रोमांचित वाले असुर, देव, विद्याधर, किन्नर, मनुष्य और राजा उसी समय श्री जैन वंदन के लिये समवसरण में आये, तब उत्तम श्रृंगार को सजाकर हाथी, घोड़े, वाहन, विमान आदि में बैठकर देव समूह के समान शोभते नगर निवासी भी धूप पात्र और श्रेष्ठ सुगंधमय पुष्प समूह आदि से हाथ भरे हुए अपने नौकर समूह को साथ लेकर शीघ्र श्री जैन वंदन के लिए चले । तब उसी नगर में रहने वाली लकड़ियों को लेकर आती, अत्यन्त आश्चर्य प्राप्त करती एक दरिद्र वृद्धा ने एक मनुष्य से पूछा- अरे भद्र ! ये सब लोग एक ही दिशा में कहाँ जाते हैं ? उसने कहा- ये लोग, तीन जगत के बन्धु दुःखदायी पापमैल को धोले वाले जन्म जरा मरणरूपी लता विस्तार को विच्छेदन करने में कुल्हाड़े के समान श्री वीर परमात्मा के चरण कमल की पूजा करने के लिए और शिवसुख का कारण भूत धर्म को सुनने के लिए जा रहे हैं । यह सुनकर शुभ पुण्य कर्म के योग से अतिशय भक्ति जागृत हुई और वह वृद्धा विचार करने लगी कि- मैं पुण्य बिना की दरिद्र अवस्था में क्या कर सकती हूँ ? क्योंकि मेरे पास जैनवर के चरण कमल की पूजा कर सकूं ऐसी अतिश्रेष्ठ निरवध पूजा के अंग समूह रूप सामग्री नहीं है अथवा नहीं है तो इससे क्या ? पूर्व में जगत के अन्दर देखे हुए मुफ्त मिलते फूलों को भी शीघ्र लाकर श्री जैन पूजा करूँ । उसके बाद पुष्पों को लेकर भाव में वृद्धि करती श्री जैन पूजा के लिये शीघ्र ही वह वृद्धा समवसरण के प्रति चली, परन्तु वृद्धावस्था से अत्यंत थक जाने से बढ़ते विशुद्ध भावना वाली वह अर्धमार्ग में ही मर गई, और उसने श्री जैन पूजा की एकाग्रता मात्र से भी कुशल पुण्य कर्म उपार्जन करके सौधर्म देवलोक में महर्द्धिक देव की संपत्ति प्राप्त
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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