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________________ श्री संवेगरंगशाला १२७ लिया। इस विषय में अधिक क्या कहें ? मन को जीतने से दुर्जय बहिर आत्मा भी पराजित होता है और उसे पराजित करने से अंतरात्मा परम पद का स्वामी परमात्मा बनता है। इस तरह मन रूपी मधुकर को वश करने के लिए मालती के पुष्पों की माला समान परिकर्म विधि आदि चार बड़े मूल द्वार वाली संवेग रंगशाला रूप आराधना के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला प्रथम परिकर्म द्वार में चित्त की शिक्षा नाम का यह छठा अन्तर द्वार कहा है। सातवाँ अनियत विहार द्वार :-इस तरह शिक्षा देने पर भी चित्त प्रायः नित्य स्थिर वास से राग के लेप से लिप्त होता है, परन्तु निःस्पृह नहीं बन सकता है। इसलिए अब समस्त दोषों को नाश करने वाला अनियत विहार को कहते हैं, उसे सुनकर आलस का त्याग कर उद्यमशील बनो, अवश्य वसति में, उपधि में, गाँव में, नगर में, साधु समुदाय में तथा भक्तजनों में इस तरह सर्वत्र राग बन्धन का त्याग करके विशुद्ध सद् धर्म को करने में प्रीति रखने वाला साधु सविशेष गुणों की इच्छा से सदा अनियत विहार करना चाहिए, अप्रतिबद्ध विचरण करे और श्रावक को भी सदा तीर्थ यात्रादि करने में प्रयत्न करना चाहिए। जो कि गृहस्थ को निश्चय स्पष्ट रूप में अनियत विहार नहीं है तो भी गृहस्थ "मैं अभी तीर्थंकर भगवन्तों के जन्म दीक्षादि कल्याणक जहाँ हुए हों उन तीर्थों में श्री अरिहंत भगवन्तों को द्रव्य स्तव का सारभूत वन्दन नमस्कार करूँगा, फिर संग का त्याग करके स्वीकार करूँगा अथवा आराधना अनशन को स्वीकार करूँगा" ऐसी बुद्धि से प्रशस्त तीर्थों में यात्रार्थ घूमते अथवा श्रेष्ठ आचार वाले गुरु भगवन्तों की खोज करते गृहस्थ भी वह अनियत विहार कर सकता है। उसमें जो दीक्षा लेकर आराधना करने की इच्छा वाला है उसके लिए अच्छे आचार वाले गुरु वर्ग की प्राप्ति का स्वरूप आगे गण संक्रमण दूसरे द्वार में कहेंगे। परन्तु जो घर में रहकर ही एकमात्र आराधना करने का ही मन वाला है, उसके लिए श्रेष्ठ आचार वाला गच्छ को गवेषणा की विधि इस द्वार में आगे कहेंगे। अब श्री जैन मत की आज्ञानुसार चलने वाले सर्व साधु तथा श्रावकों को भी एक क्षेत्र में से अन्य क्षेत्र में गमन रूप विहार की यह विधि है कि-प्रथम निश्चय जिसने जिसके साथ में मन से, वचन से या काया से जो कोई भी पाप किया हो करवाया हो, अथवा अनुमोदन किया हो, वह थोड़ा हो अथवा समस्त पाप को भी समाधि की इच्छा करने वाला सम्यग् भावपूर्वक क्षमा याचना करे और इसमें ऐसा समझे कि मेरा किसी तरह मृत्यु बाद भी वैर का अनुबन्धन हो। इसमें यदि विहार करने वाला सामान्य मुनि हो तो आचार्य, उपाध्याय को और स्वयं पर्याय में छोटा हो तो
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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