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________________ श्री संवेगरंगशाला १२५ कर वहाँ से वह शीघ्र घर की ओर चला । फिर प्रबल क्रोध के वश बना जब वह अपने घर के दरवाजे पर पहुँचा, तब अपनी बहन को जंगल जाने की चिन्ता से घर में प्रवेश करते देखा, इससे 'यह मेरी पत्नी है' ऐसा मानकर उसने कहा – अरे पापिनी ! दुराचारिणी होकर भी मेरे घर में क्यों प्रवेश करती है ? उस भाट के सामने मुझे 'कपट पण्डित' ऐसा मुलजिम बनाकर और उसके साथ सहर्ष क्रीड़ा करके तू आई है । ऐसा बोलते उसने 'हा ! हा !! ऐसा क्यों बोलते हो, यह कौन है ? मैंने क्या अकार्य किया है ? ' इस प्रकार बड़ी आवाज से बोली बहन को भी अत्यन्त क्रोध के आवेश में उसको नहीं जानने से लकड़ी और मुट्ठी से निष्ठुरतापूर्वक उसके मर्मस्थानों पर इस तरह प्रहार किया कि जिससे वह मर गई । उसके बाद ही मित्र वर्ग ने आकर उसे रोका, इससे अधिक क्रोधायमान होकर उसने कहा कि - हे पापियों ! तुम्हारे ही प्रपंच से निश्चय रूप से मेरो स्त्री ऐसा अकार्य करती है और इसी कारण से ही तुम मुझे रोकते हो, निश्चय इस कारण से ही इसके पाप कार्य में विघ्न दूर करना तुम नहीं चाहते परन्तु मुझे नाटक दिखाने के लिये भी ले गये, अथवा कृत्रिम मैत्री से युक्त कपटियो को कोई भी कार्य अकरणीय नहीं है इसलिये हे दुराचारियों ! मेरी दृष्टि के सामने से दूर हट जाओ । इस तरह गलत कुविकल्प से पीड़ित मन वाला वसुदत्त ने निश्चय ही निर्दोषी होते हुये भी इस तरह उनका तिरस्कार किया, इससे वे अपने घर चले गये । यह कोलाहल सुनकर उसकी स्त्री घर में से बाहर आकर और स्थिति देखकर बोलने लगी कि'हा ! हा ! निर्दय ! निर्लज्ज ! अनार्य ! अपनी बहन को क्यों मारता है ? जो ऐसा पाप तो चण्डाल भी नहीं करता है । इस तरह उसने और नगर लोगों ने भी उसकी निन्दा की, इससे अति कुविकल्पों से घबड़ाये हुए मन वाले उस वसुदत्त ने पुन: विचार किया कि - यह मेरी पत्नी केवल असती ही नहीं, परन्तु शाकिनी भी है कि जिससे मुझे भी इस तरह व्यामूह करके स्वयं हट गई और बहन को मार दी है फिर तेरा क्रोध शान्त हुआ है और साधु के समान मुख का रंग बदले बिना गम्भीर मुख बनाकर मुझे रोकने लगी है, यदि इसने मेरी दृष्टि वंचना नहीं की हो तो क्या अत्यन्त अन्धकार में मेरी बहन को भी मैं नहीं जान सकता ? ऐसी कल्पना कर कमल के पत्र समान काली तलवार को खींचकर हे पापिनी ! डाकण !! हे बहन को नाश करने वाली !!! अब तू कहाँ जायेगी ? कि जिस बृहस्पति के समान विद्वान होते हुए भी मुझे तूने विभ्रमित किया । ऐसा बोलते उसने पत्नी के दोनों होठों सहित नाक को काट दिया ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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