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________________ ११८ श्री. संवेगरंगशाला मिलता है ? हे मन ! तू यदि संतोषी बनेगा वही तेरी उदारता है, वही तेरा बड़प्पन है, वही सौभाग्य है, वही कीर्ति और वही तेरा सुख है । हे चित्त ! तू संतोषी होते ही तेरी सर्व संपत्तियाँ हैं अन्यथा चक्री जीवन में और देवत्व में सदा दरिद्रता ही है । हे मन ! अर्थ की इच्छा वाला दीनता का ही अभिनय करता है उसको प्राप्त करने पर अभिमान और असंतोष को प्राप्त करता है तथा मिलने के बाद धन नष्ट हो जाने से शोक करता है । इसलिए धन की आशा छोड़कर तू संतोष रूपी सुख से रहो । निश्चय ही अर्थ की इच्छा प्रगट करने के साथ ही अन्दर तत्त्व (स्वत्व) निकल जाता है, अन्यथा हे मन ! अर्थीजन वैसी ही अवस्था वाला होने पर भी उसकी लघुता कैसे होती है ? और मृतक में जो भारीपन बढ़ता है उसके कारण की भी स्पष्ट जानकारी मिली है। कि- जीता था तब अर्थीजन होने के कारण हल्का - लघु था, वह अर्थीजन मर • जाने के बाद नहीं होता इस कारण से वह भारी बन जाता है । हे मन ! नित्यमेव दुःखों से तू उद्विग्न रहता है और सुखों को चाहता है, परन्तु तू ऐसा क्यों नहीं करता कि जिससे इच्छित सुख मिले । हे हृदय ! पूर्व में तूने जैसा किया है, वर्तमान में तुझे वैसा ही मिला है इसलिए इसमें हर्ष - खेद मत कर ! सम्यग् परिणाम से समतापूर्वक सहन कर । " संयोग वियोग वाला, विषय विष के समान परिणाम से दुःखदायी है, काया अनेक रोगों वाली है और रूप स्वरूप से क्षण भंगुर है ।" ऐसा दूसरे को उपदेश देते तेरा वचन जैसे बनता है, वैसे हे चित्त ! तेरे अपने लिए भी ऐसा बने तो अर्थात् सर्वस्व प्राप्त होता है । हे हृदय ! तेरी पुण्य और पाप रूपी जो मजबूत दो बेड़ियाँ विद्यमान हैं उसे स्वध्याय रूपी चाबी से खोलकर मुक्ति को प्राप्त कर । हे चित्त ! संसार में सुख का तू जो अनुभव चाहता है वह तृष्णा की शान्ति के लिए तू मृग जल को पीता है, सत्त्व की शोध के लिए केले की छाल को उखाड़ता है, मक्खन के लिए पानी को मथना, तेल के लिए रेती को पीलाना अर्थात् ये क्रिया सब निष्फल हैं वैसे संसार में सुख प्राप्ति की इच्छा भी निष्फल है । जैसे इस संसार में कुछ गड़ा हुआ और कुछ गड़ते पात्र को अधूरा छोड़कर दूसरे को गढ़ने से पूर्व के अधूरे का नाश होता है, वैसे अनेक प्राणि जन्म कर साधना नहीं करते, केवल विविध गर्भादि अवस्थाओं को प्राप्त कर संसार के जन्म मरणादि के दुःखों को ही सहन करता है अमुक कारण से नाश होता है, यह जानकर हे चित्त ! कुछ भी शुभ चिन्तन का चिन्तन कर । हे चित्त ! तू एक होने पर अनेक वस्तु का चिन्तन करने से बहुत्व को प्राप्त महा स्फूर्ति वाला क्या प्राप्त न हो
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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