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________________ ૧૧૬ श्री संवेगरंगशाला से ही मिलाने में क्लेश को पैदा करती है, मिलने पर पुनः मोह उत्पन्न होता है और उसका नाश होने से अति संताप को पैदा करता है। इसलिए हे चित्त ! इस समय दुर्गति जाने के मार्ग समान राजा, अग्नि और चोरों का साध्य उस विभूतियों का राग तत्त्व से समझपूर्वक त्याग कर । हड्डी रूपी स्तम्भ धारण करते, स्थान-स्थान पर नसों का रस्सी रूप बन्धन से बांधी हुई, मांस चर्बी आदि के ऊपर चमड़ी ढाकने वाली, इन्द्रिय रूपी रखवाले से रक्षण होता और स्वकर्म रूपी बेड़ियों से जकड़ा हुआ जीव की जेल समान, केवल दुःखों का अनुभव करने का स्थान रूप काया में भी हे मन ! तू मोह मत कर ! सचित, अचित, मिश्र द्रव्य आदि विषयों के राग रूप मजबूत तन्तुओं से नित्यमेव सर्व तरफ से स्वयं अपने आप का गाढ़ लपेटता हुआ हे चित्त ! रेशम के कीड़े समान तेरा छुटकारा किस तरह होगा ? हे मूढ़ ! यह भी विचार कर कि-इस संसार में किसी भी स्थान पर जो वस्तु इन्द्रिय ग्राह्य है, वह स्थिर नहीं फिर भी यदि तू वहाँ राग करता है तो हे मन ! तू ही मूढ़ है । संसार में उत्पन्न हुई समस्त वस्तुओं के समूह का नियम से स्वभाव से ही हाथी के बच्चे के कान समान अति चंचलता है इस प्रकार एक तो अपने अनुभव से और दूसरा श्री जिनेश्वर देव के वचनों से भी जानकर, हे मन ! क्षण मात्र भी तू उसमें राग का बन्धन नहीं करना, और हे चित्त ! 'इस असार संसार में स्त्री ही सार है' ऐसे गलत भ्रम रूपी मदिरा से मदोन्मत्त बना तुझे शान्ति कैसे होगी ? क्योंकि इस जन्म या दूसरे जन्म में जीवों को जो तीव्र दुःख आते हैं उन दुःखों का निमित्त स्त्रियों के बिना अन्य कोई नहीं होता है। मैं मानता हूँ कि-मुख में मधुरता और परिणाम से भयंकरता को देखकर विधाता स्त्रियों के मस्तक पर सफेद बाल के बहाने राख डालते हैं। तथा हे मन भ्रमर ! काम क्रीड़ा से आलसी स्त्रियों को भी मुख रूपो कमल विकसित भी, विशाल नेत्र रूपी पत्तों से अति सुशोभित भी लावण्य रूपो जल से भीगी हुई भी, मस्तक के बाल रूपी भ्रमरों से व्याप्त भी, चारों ओर से सुगन्ध को फैलाते भी और विशिष्ट रूप शोभा से युक्त भो आरम्भ में अल्पमात्र सुखदायक बनकर अन्त में तुझे बन्धन रूप होगा, क्योंकि स्त्रियों का शरीर चर्बी, हाड, पिंजर, नसें तथा मल, मूत्रादि से बीभत्स दुष्ट द्रव्यों का समूह है, और हे चित्त ! पंडित भी स्त्रियों के चरण को लाल कमल के साथ, पैर को केले के स्तम्भ समान, स्तन का वर्णन कठिनता और आकार को श्रेष्ठ जाति का सुवर्ण, शील और उत्तम कलश के साथ, हथेली को कंकेली वृक्ष के पत्तों के साथ, भुजाएँ अथवा शरीर गान को लता के साथ, मुख को चन्द्रमा के साथ,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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