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________________ श्री संवेगरंगशाला ६७ शाला में क्रिया हो तो साधओं के पास जाकर वन्दनपूर्वक सम्यक पच्चक्खान करे और समय अनुसार श्री जैन वाणी का श्रवण करे तथा बाल मुनि ग्लान साध आदि साधुओं के विषय में सुखशाता आदि पूछे और उनके करने योग्य औषध समग्र कार्य यथायोग्य भक्तिपूर्वक पूर्ण करे । उसके बाद आजीविका के लिए कुल क्रम के अनुसार जिसमें लोग में निन्दा न हो और धर्म की निन्दा न हो इस प्रकार व्यापार करे । भोजन के समय घर आकर स्नानादि करके श्री संघ के मन्दिर में पूष्पादि से अंगपजा, नैवेद्यादि से अग्रपूजा, वस्त्रादि से सत्कार पूजा और उत्तम भाववाही स्तोत्रों से भावपूजा इस तरह चार प्रकार की पूजा द्वारा विधिपूर्वक श्री जिनेश्वर प्रभ की प्रतिमा की सम्यग् रूप में पूजा करे फिर साधु के पास जाकर ऐसी विनती करना कि- "हे भगवन्त ! आप मेरे ऊपर अनुग्रह करो।" जगजीव वत्सल आप अशनादि वस्तुओं को ग्रहण करके, संसार रूपी कुएं में गिरते हए मुझे हाथ का सहारा दो। फिर साधु साथ ले चले, चलते समय साधु के पीछे-पीछे चले। इस तरह घर के द्वार तक जाए इस समय दूसरे स्वजन भी दरवाजे से बाहर सामने आये वे सभी उनको वंदन करें, फिर दानरूचि की श्रद्धावाला श्रावक भी गुरु के पैर की प्रेमार्जन की भूमि पर आसन पर बैठने की विनती करके विधिपूर्वक संविभाग करे (दान दे) फिर वन्दन पूर्वक विदाकर वापिस घर आकर पितादि को भोजन करवा कर पशु, नौकर आदि की भो चिन्ता-सम्भाल लेकर उनके योग्य खाने की व्यवस्था कर, अन्य गाँव से आये हुए श्रावकों की भी चिन्ता करके और बीमारों की सार सभाल करके फिर उचित स्थान पर उचित आसन पर बैठकर, अपने पच्चक्खान को याद कर पारे (पूर्ण करे। श्री नवकार मंत्र को गिन कर भोजन करें। भोजन करने के बाद विधिपूर्वक घर मन्दिर की प्रतिमा जी के आगे बैठ कर चैत्य वंदन करके दिवस चरिम आदि पच्चक्खान करे। फिर समय अनुसार स्वाध्याय और कुछ नया अभ्यास कर, पुनः आजीविका के लिए अनिंदनीय व्यापार करें, शाम के समय में पुनः अपने घर मंदिर में श्री जिनेश्वर की पूजा करके उत्तम स्तुति स्तोत्रपूर्वक वदन भी करे, फिर संघ के श्री जैन मन्दिर में जाकर जैनबिम्बों की पूजा कर चैत्यवन्दन करे और प्रातःकाल में कहा था उस प्रकार शाम को भी सामायिक-प्रतिक्रमणादि करे । वह प्रतिक्रमणादि यदि साधु के पास नही करे तो फिर साधु के उपाश्रय में जाये वहाँ वन्दना आलोचना और क्षमापना करके पच्चक्खान स्वीकार करे और समय अनुसार धर्मशास्त्र का श्रवण करे, साधुओं की शरीर सेवा आदि भक्तिपूर्वक विधि से करे । संदिग्ध शब्दों का अर्थ पूछ कर और श्रावक वर्ग का भी औचित्य करके घर जाये
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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