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________________ श्री संवेगरंगशाला ६१ है कि - तप संयम में जो क्रिया वाला (उद्यमी है ) है उसे चैत्य, कुल, गुण, संघ और आचार्यों में तथा प्रवचन श्रुत इन सबमें भी जो करने योग्य है उसकी सेवा करने का है । जिस तरह क्षायोपशमिक चारित्र का फल है उसी तरह ही क्षायिक चारित्र का भी सुन्दर फल साधकत्व जानना । क्योंकि केवल ज्ञान को प्राप्त करने पर भी श्री अरिहंत देव को भी केवल -- ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है जब तक समस्त कर्मरूपी ईंधन को अग्नि समान अन्तिम विशुद्ध को करने वाली पाँच हस्वाक्षर के उच्चार मात्र काल जितनी स्थिति वाले सर्व आश्रतों का संवर रूप और इस संसार में कभी पूर्व में प्राप्त नहीं किया हुआ अन्तिम क्रिया जिसमें मुख्य है वह चारित शैलेशीकरण-क्रिया प्राप्त नहीं होती है । अर्थात् भगवान को केवल ज्ञान के बाद भी मुक्ति जाने के शैलेशीकरण की क्रिया करनी पड़ती है वह क्रिया भी उन्हें आवश्यक है । इस विषय में भी उदाहरण उस सुरेन्द्रदत्त का ही जानना । यदि वह जानकार होने पर भी राधावेध रूप क्रिया नहीं करता तो दूसरों के समान तिरस्कार पात्र बनता है । इस लिए इस लोक-परलोक के फल की संप्राप्ति में अवन्ध कारक आसेवन शिक्षा ही है, अतः उसमें प्रयत्न नहीं छोड़ना चाहिए । ज्ञान-क्रिया उभय की परस्पर सापेक्ष उपादेयता :- इस तरह ज्ञान, क्रिया इन दोनों नयों द्वारा उभय पक्ष में भी कही हुई शास्त्रोक्ति विविध युक्तियों का समूह सुनकर जैसे एक ओर पुष्ट गन्ध से मनोहर खिले हुए केतकी का फूल और दूसरी ओर अर्ध विकसित मालति की कली को देखकर उसके गन्ध में आसक्त भौंरा आकुल बनता है वैसे उस उस स्व-स्व स्थान में युक्ति के महत्त्व को जानकर मन में बढ़ते संशय की भ्रांति में पड़ा हुआ शिष्य पूछता है कि- ज्ञान या क्रिया के विषय में तत्त्व क्या है ? गुरु महाराज ने कहा अन्योन्य सापेक्ष होने से ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा दोनों तत्त्व रूप हैं, क्योंकि यहाँ ग्रहण शिक्षा अर्थात् ज्ञान बिना आसेवन शिक्षा अर्थात् क्रिया सम्यग् नहीं होता और आसेवन शिक्षा बिना ग्रहण शिक्षा भी सफल नहीं होती । क्योंकि यहाँ श्रुतानुसार जो प्रवृत्ति वही सम्यक्त्व प्रवृत्ति है, इसलिए यहाँ सूत्र, अर्थ के ग्रहण - ज्ञानपूर्वक जो क्रिया उसे मोक्ष की जनेता कहा है । और जो तप संयममय जो योग क्रिया को वहन नहीं कर सकता वह श्रुत ज्ञान में प्रवृत्ति करने वाला भी जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है । कहा है कि 'जैसे दावानल देखता हुआ भी पंगु होने से जलता है और दौड़ता हुआ भी अंध होने से जलता है वैसे क्रिया रहित ज्ञान और ज्ञान बिना की क्रिया भी निष्फल जानना' ( यह विशेष आवश्यक का ११५६ वाँ श्लोक है ।) "ज्ञान और उद्यम दोनों का संयोग सिद्ध होने से फल की प्राप्ति होती है" लोक में भी कहा जाता है कि
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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