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________________ ८५ श्री संवेगरंगशाला करने वाला, सद्गति के मार्ग का प्रकाशक और भगवन्त के उस श्री जैन वचन का कल्याण हो कि जिससे ये गुण प्रकट गये हैं। ज्ञान से आत्महित का होश, भाव संवर, नया-नया संवेग दृढ़ता तप, भावना, परोपदेशत्व, और जीव अजीवआश्रव आदि तात्त्विक सर्व भाव का तथा इस जन्म, परभव सम्बन्धी आत्मा का हित अहित आदि सम्यक् समझ में आता है। आत्महित का अज्ञानी मूढ़ जीव उलझन में पड़ता है, पापों को करता है और पापों के कारण अनन्त संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है। क्योंकि आत्महित को जाने उसे अहित से निवृत्ति और हित में प्रवृत्ति होती है, इसलिए हमेशा आत्महित को जानना चाहिये । और स्वाध्याय को करने वाला पांचों इन्द्रियों के विकारों को संवर करने वाला, तीन गुप्ति से गुप्त बनकर राग द्वेषादि घोर अशुभ भावों को रोकता है। जैसे-जैसे तात्त्विक इसके अतिशय विस्तारपूर्वक नये-नये श्रुत का अवगाहन करता है वैसे-वैसे नयी-नयी संवेग की श्रद्धा होने से मुनि को महानन्द प्राप्त होता है। और लाभ, हानि की विधि को जानता, विशुद्ध लेश्या वाला और स्थिर मन वाला वह ज्ञानी जिन्दगी तक तप, ज्ञान, दर्शन और चारित्र में मनोरंजन करता है। कहा है कि श्री अरिहंत देव के द्वारा कहा हआ बाह्य, अभ्यन्तर बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय समान तप कर्म न है और नहीं होने वाला है। स्वाध्याय का चिन्तन करने से जीव की सर्व गुप्तियां भाव वाली बनती हैं और भाव वाली गुप्तियों से जीवमरण के समय में आराधक बनता है । परोपदेश देने से स्व पर का उद्धार होता है, जिनाज्ञा प्रति वात्सल्य जागृत होता है, शासन की प्रभावना, श्रुत भक्ति और तीर्थ का अविच्छेद होता है। और अनादि के अभ्यास उपदेश बिना भी लोग काम और अर्थ में तो कुशल है, परन्तु धर्म तो ग्रहण शिक्षा ज्ञान बिना नहीं होता है, इसलिए इसमें प्रयत्न करना चाहिये। यदि अन्य मनुष्यों को धन आदि में अविधि करने से उसका धन आदि का अभाव ही होता है तो रोग चिकित्सा के दृष्टान्त से धर्म में भी अविधि अनर्थ के लिए होती है। इसलिए धर्मार्थी ग्रहण शिक्षा में हमेशा प्रयत्न वाला होना चाहिए क्योंकि मोहान्ध मनुष्यों को उस ज्ञान का प्रकाश धर्म प्रवृत्ति में प्रेरक बनता है। जगत में ज्ञान चिन्तामणि है, ज्ञान श्रेष्ट कल्पवृक्ष है, ज्ञानविश्वव्यापी चक्षु है और ज्ञान धर्म का साधन है। जिसको इसमें बहुमान नहीं है उसकी धर्म क्रिया लोक में जाति अंध (जन्म से अंध) को नाटक देखने क्रिया के समान निष्फल कहा है। और ज्ञान बिना जो स्वेच्छाचार से कार्य में प्रवृत्ति करता है वह कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता है, सुखी नहीं
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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