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________________ (२८६) तैं कर्मकी निर्जरा होय है भर संवर होय है सो ए दोऊं ही मोक्षके कारण हैं सो जो मुनिवत लेयकरि बाह्य अभ्यंतर भेदकर कहा जो तप ताक तिस विधानकरि श्राचरे है सो मुक्ति पावै है, तब ही कर्मका अभाव होय है. याही अविनाशी बाधा रहित आत्मीक सुखकी प्राप्ति होय है. ऐसें बारह प्रकारके तपके धारक तथा इस तपका फल पावें ते साधु च्यारि प्रकारकरि कहे हैं. अनगार, यति, मुनि, ऋषि, तहां सामान्य साधु गृहवासके त्यागी मूलगुणनिके धारक ते अनगार हैं. बहुरि ध्यानमें तिष्ठे श्रेणी मांडें ते यति हैं, बहुरि जिनको अवधि मन:पर्ययज्ञान होय तथा केवलज्ञान होय ते मुनि हैं. बहुरि ऋद्धिधारी होंय ते ऋषि हैं. तिनके च्यारि भेद. राजऋषि, ब्रह्मऋषि, देवऋषि, परमऋषि, तहां विक्रिया ऋद्धिवाले राजऋषि, अक्षीण महानस ऋद्धिवाले ब्रह्मऋषि, आकाशगामी देवऋषि, केवलज्ञानी परमऋषि हैं ऐसें जानना ॥ ४८६ ॥ आगे या ग्रंथका कर्त्ता श्रीस्वामिकार्तिकेयनामा मुनि हैं सो अपना कर्त्तव्यप्रगट करें हैं, - जिणवयणभावणट्टै सामिकुमारेण परमसद्धाए । रइया अणुपेक्खाओ चंचलमणरुंभणटुं च ॥४८७॥ भावार्थ - यह अनुप्रेक्षा नाम ग्रंथ है सो स्वामिकुमार जो स्वामिकार्तिकेय नामा सुनिता रच्या है. गायारूप रचना -करी है. इहां कुमार शब्दकरि ऐसा सूच्या है जो यह मुनि
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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