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________________ ( २८४ ) आगे तीसरा भेद कहे हैं, - "केवलणाण सहावो हमे जोगम्मि संठिओ काए । जं ज्झायदि सजोगजिणो तं तदियं सुहमकिरियं च ॥ भाषार्थ - केवलज्ञान है स्वभाव जाका ऐसा सयोगी जिन सो जब सूक्ष्म काय योग में तिष्ठे तिस काल जो ध्यान होय सो तीसरा सूक्ष्मक्रिया नामा शुक्ल ध्यान है. भावार्थजब धातिकर्मका नाशकरि केवल उपजै, तब तेरहवां गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली होय है तहां तिस गुणस्थान कालका अंत में अंतर्मुहूर्त शेष रहै तब मनोयोग वचनयोग रुकि जाय अर काययोगकी सूक्ष्मक्रिया रह जाय तब शुक्लध्यानका तीसरा पाया कहिये है. सो इहां उपयोग तौ केवलज्ञान उपया तबही अवस्थित है अर ध्यान में अन्तर्मुहूर्त ठहरना का है सो इस ध्यानकी अपेक्षा तौ इहां ध्यान है नाहीं 'अर योग भनेकी अपेक्षा ध्यानका उपचार है अर उपयोगकी अपेक्षा कहिये तौ उपयोग थंभ ही रहा है किछू जा-नना रह्या नाहीं तथा पलटावनेवाला प्रतिपक्षी कर्म रखा नाहीं तातैं सदा ही ध्यान है अपने स्वरूपमें रमि रहे हैं. ज्ञेय भारसीकी ज्यों समस्त प्रतिबिंबित होय रहे हैं, मोहके -नाश काहू विषै इष्ट अनिष्टभाव नाहीं है ऐसें सूक्ष्मक्रियामतिपाती नामा तीसरा शुक्लध्यान प्रवर्त्ते है ॥ ४८४ ॥ भागे चौथा भेद कहै हैं, - - विणri faar कम्मचउक्कस्स खवणकरणट्टं ।
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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