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________________ (२७४) में निदानबंध भायगया. ये दोऊ ध्यान अशुभ है पापबंध करै हैं धर्मात्मा पुरुषनिकै त्यजने योग्य हैं ।। ४७२ ॥ आगे रौद्रध्यानौं हैं हैं,हिसाणंदेण जुदो असच्चवयणेण परिणदो जो दु। तत्थेव अथिरचित्तो रुदं ज्झाणं हवे तस्स ॥ ४७३ ॥ ___भाषार्थ-जो पुरुष हिंसाविषै आनन्दकरि संयुक्त होय. बहुरि असत्य वचन करि परिणमता रहै तहां ही विक्षिप्तचित्त रहै तिसकै रौद्रध्यान होय है. भावार्थ-हिंसा जो जीवनिका घात तिसकौं करि अति हर्ष माने, शिकार आ. दिमें आनन्दतै प्रवत्तै, परके विघ्न होय, तब अति संतुष्ट होय बहुरि झूठ बोलि करि अपना प्रवीणपणा मान, परके दोषनिकौं निरन्तर देखे, कहै तामें आनंद मानै ऐसे ए दोय भेद रौद्रध्यानके कहे ॥ ४७३॥ ___आगें दोय भेद और कहै हैं,परावसयहरणसीलो सगीयावसयेसुरक्खणे दक्खो। तग्गयचित्ताविट्ठो णिरंतरं तं पि रुदं पि ॥ ७४ ॥ . भाषार्थ-जो पुरुष परकी विषय सामग्रीकू हरणे का स्वभावसहित होय, बहुरि अपनी विषय सामग्रीकी रक्षा कर. णेविष प्रवीण होय, तिनि दोऊ कार्यनिविषे लीनचित निरन्तर राख, तिस पुरुषकै यह भी रौद्रध्यान ही है. भावार्थ, परकी सम्पदाकौं चोरनेविष प्रीण होय चोरीकरि हर्ष मानै
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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