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________________ (२७१) जो देहपालणपरो उवयरणादीविसेससंसचो। वाहिरववहाररओ काओसग्गो दो तस्स ॥ ४६७ ॥ भाषार्थ-जो मुनि देहके पालनेविषै तत्पर होय, उपकरण आदिकवि विशेष संसक्त होय, बहुरि बाह्य व्यवहार लोकरंजन करनेविषै रत होय, तत्पर होय ताक कायोत्सर्ग तप काहते होय ? भावार्थ-जो मुनि बाह्य व्यवहार पूजा प्र. तिष्ठा आदि तथा ईर्यासमिति आदि क्रिया ताकौं लोक जानैं यह मुनि है ऐसी क्रिया तत्पर होय अर देहका आहारादिकतै पालना उपकरणादिकका विशेष संवारना शिष्य ननादिकतें बहुत ममता राखि प्रसन्न होना इत्यादिक में लीन होय अर अपना स्वरूपका यथार्थ अनुभव जाकै नाहीं तामें कबहूं लीन होय ही नाही कायोत्सर्ग भी करै तौ खड़ा र. हना आदि बाह्य विधान करले तौ ताकै कायोत्सर्ग तप न कहिये निश्चय विना बाह्यव्यवहार निरर्थक है ॥ ४६७॥ अंतो मुहुचमेचं लीणं वत्थुम्मि माणसं णाणं । ज्झाणं भण्णइ समए असुहं च सुहं च तं दुविहं ६८ ___ भाषार्थ-जो मनसंबंधी ज्ञान वस्तुविष अंतर्मुहूर्तमात्र लीन होय एकाग्र होय सो सिद्धान्तविष ध्यान कया है सो शुभ बहुरि अशुभ ऐसे दोय प्रकार कया है. भावार्थ-ध्यान परमार्थतें ज्ञानका उपयोग ही है जो ज्ञानका उपयोग एक ज्ञेय वस्तुमें अन्तर्मुहूर्तमात्र एकाग्र ठहरै सो ध्यान है सो शुभ भी है अर अशुभ भी है ऐसे दोय प्रकार है ॥ ४६ ॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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