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________________ (२५५ ) लगाय बत्तीस ग्रास ताई आहारका प्रमाण कहया है तामें यथा इच्छा घटती ले सो भवमोदर्यतप है । ४४१ ॥ जो पुण कित्तिणिमित्तं मायाए मिट्ठभिक्खलाहट्टं । अप्पं भुजदि भोज्जं तस्स तवं णिष्फलं विदियं ॥ ४२ ॥ भावार्थ- जो मुनि कीर्त्तिके निमित्त तथा माया कपट करि तथा मिष्ट भोजनके लाभके अर्थ अल्प भोजन करे है तपका नाम करे है तार्के तो दूसरा अवमोदर्य तप निष्फल है. भावार्थ- जो ऐसा विचारे अल्प भोजन कियेसूं मेरी कीर्ति होयगी. तब कपटकार लोककौं भुलावा दे किछूमयोजन साधने के निमित्त तथा यह विचारे जो थोडा भोजन किये भोजन मिष्ट रससहित मिलेगा ऐसे अभिप्रायतें ऊनोदर तप करे तो ताके निष्फल है. यह तप नाहीं पाखंड है। आर्गे वृत्तिपरिसंख्यान तपकौं कहै हैं, गादिगिहपमाणं किं वा संकष्पकप्पियं विरसं । भोज्जं पसुव्व भुंजइ विचिपमाणं तवो तस्स ॥ ४३ ॥ भाषार्थ - जो मुनि आहारकूं उतरे तब पहले मनमें ऐसी मर्याद करि चालै जो आज एक ही घर पहले मिलेगा तौ श्राहार लेवेंगे नातर फिर श्रावेंगे तथा दोय घर तांई जांयगे ऐसें मर्याद करै, तथा एक रस ताकी मर्याद करें तथा देनेवालेकी मर्याद करै तथा पात्रकी मर्याद करै ऐसा दातार ऐसी रीवि एसे पात्रमें लेकर देवैगा तौ लेवेंगे. तथा श्राहारकी
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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