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________________ (२५३) आहार करते भी उपवास सहित ही कहिये. भावार्थ-इंद्रि यका जीतना सो उपवास सो यतिगण भोजन करते भी उपवासे ही हैं जाते इंद्रियनिकू वशीभूतकरि प्रवत हैं। जो मणइंदियविजई इहभवपरलोयसोक्खाणिरवेक्खो अप्पाणे चिय णिवसइ सज्झायपरायणो होदि ॥ ३८ ॥ कम्माण णिजरहें आहारं परिहरेइ लीलाए। एगादणादिपमाणं तस्स तवो अणसणं होदि ॥४३९॥ भाषार्थ-जो मन इंद्रियनिका जीतनहारा है बहुरि इस भव परभवके विषयसुखनिविष अपेक्षा रहित है बांछा नाही कर है बहुरि अपने प्रात्मस्वरूप ही विष वस है. अथवा स्वा. ध्यायविषै तत्पर है । बहुरि एक दिनकी मर्यादातें कर्मनिकी निर्जराके अर्थ क्रीडा कहिये लीलामात्र ही क्लेश रहित हषत आहारको छोडै है ताकै अनशन तप होय है. भावार्यउपवासका ऐसा अर्थ है जो इंद्रिय मन विषयनिविष भट्टतित रहित होय प्रात्मामें बसै सो उपवास है. सो ईद्रियनिका जीतना विषयनिकी इसलोक परलोक सम्बन्धी बांछा न करनी, कै तौ आत्मस्वरूपविषे लीन रहना, के शास्त्रके अभ्यास स्वाध्यायविषै मन लगावणा ए तौ उपवासविष प्रधान हैं. बहुरि क्लेश न उपजै जैसे क्रीडामात्र एक दिनकी मर्यादारूप पाहारका त्याग करना ऐसे उपवास नामा अन. शन तप होय है ॥ ४३८-४३९ ॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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