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________________ ( २५१ ) धम्मविहीणी जीवो कुणइ असज्झपि साहसं जइविं तो विपावदि इट्टं सुट्टु अणिट्ठे परं लहदि ३४ भाषार्थ - धर्मरहित जीव है सो यद्यपि बडा असहवे योग्य साहस पराक्रम करै तौऊ ताके इष्ट वस्तुकी प्राप्ति न होय केवल उलटा अतिसैकरि अनिष्टकं प्राप्त होय है । भावार्थ- पापके उदयतें भली करतें बुरा होय है यह जगप्रसिद्ध है ॥ ४३४ ॥ इय पच्चक्खं पिच्छिय धम्माहम्माण विविमाहप्पं । धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ३५ भाषार्थ हे प्राणी हो या प्रकार धर्म अर अधर्मका अनेक प्रकार माहात्म्य प्रत्यक्ष देखिकरि तुम धर्मकूं आदरौ र पापकूं दूरहोतें परिहरौ. भावार्थ - प्राचार्य दशमकार धर्म का स्वरूप कहिकरि अधर्मका फल दिखाया. अब इहां यह उपदेश कीया है जो हे प्राणी हौ ! जो प्रत्यक्ष धर्म अधर्मका फल लोकविषै देखि धर्मकूं आदरौ पापकं परिहरौ. आचार्य बडे उपकारी हैं निष्कारण आापकूं किछू चाहिये नाहीं. निस्पृह भये संते जीवनिके कल्याणही के अर्थ बारंवार कहिकरि प्राणीनिक चेत करावे हैं, ऐसे श्रीगुरु बन्दने पुजने योग्य हैं. ऐसें यतिधर्मका व्याख्यान किया । दोहा । मुनिश्रावक भेद, धर्म दोय परकार ।
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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