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________________ ( २४७ ) आगे इस धर्मके करनेवाला तथा जाननेवाला दुर्लभ है ऐसें कहै हैं, - धम्मं ण मुणदि जीवो अहवा जाणेइ कहवि कट्टेण । काउं तो वि ण सक्कादे मोहपिसाएण भोलविदो ॥ भाषार्थ - या संसार में प्रथम तो जीव धमकौं जाणे ही नाहीं है बहुरि कोई प्रकार बडा कष्टकरि जो जा भी तौ मोहरूप पिशाचकरि भ्रमित किया हुवा करनेकौं समर्थ नाहीं होय है. भावार्थ - अनादिसंसारतें मिध्यात्वकरि भ्रमित जो यह प्राणी प्रथम तौ धर्मकौं जाणे ही नाहीं है बहुरि कोई काललब्धितें गुरुके संयोगत ज्ञानावरणीके क्षयोपशमतें जाने भी तो ताका करना दुर्लभ है ।। ४२५ ।। मागे धर्मका ग्रहणका माहात्म्य दृष्टांतकरि कहे हैं, - जह जीवो कुणइ रई पुत्तकल कामभोगे । तह जइ जिणिदधम्मे तो लीलाए सुहं लहादे २६ भाषार्थ - जैसे यह जीव पुत्र कलत्रविषै तथा काम भोगविषै रति प्रीति करे है तैसें जो जिनेन्द्रके वीतराग धर्मविषे करै तौ लीला मात्र शीघ्र कालमें ही सुखकूं प्राप्त होय है। भावार्थ - जैसी या प्राणीके संसारविषै तथा इंन्द्रियनिके विषय प्रीति है तैसी जो जिनेश्वरके दश लक्षण धर्म स्वरूप जो वीतराग धर्म ताविषे प्रीति होय तौ थोडेसे ही कालविषै मोक्षकूं पावै ॥ ४२६ ॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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