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________________ ( २४१ ) है. कैसा है तिस दुद्धर तपकरि मोक्षकी ही बांछा करता संता है. भावार्थ - जो धर्मकौं श्राचरण करें दुद्धर तप करै सो मोक्षही अर्थ कर स्वर्ग प्रादिके सुख न चाहै ताकै निःकां क्षित गुण होय है ॥ ४१५ ॥ या निर्विचिकित्सा गुणकौं, कहै हैं, - दहविहधम्मजुदाणं सहावदुग्गंध असुइदेहेसु । जं णिंदणं ण कीरइ णिव्विदिगिंछा गुणे सो हु ४१६ भाषार्थ - जो दशप्रकारके धर्मकरि संयुक्त जे मुनिराज तिनिका देह सो प्रथम तो देहका स्वभाव ही करि दुर्गंध अशुचि है बहुरि स्नानादि संस्कार के अभावतैं बाहयमें वि. शेषकर अशुचि दुर्गंध दीखे है ताकी अवज्ञा न करै सो निविचिकित्सा गुण है. भावार्थ- सम्यग्दृष्टी पुरुषकी प्रधान दृष्टि सम्यक्त्वज्ञानचारित्रगुणनि परि पडै है देह तौ स्वभाव ही करि अशुचि दुर्गंध है तातैं मुनिराजनिकी देहकी तरफ कहा देखे ! तिनिके रत्नत्रयकी तरफ देखे तब काहेकौं ग्लानि आवै. यह ग्लानि न उपजाना सो ही निर्विचिकित्सा गुण जाकै सम्यक्त्व गुण प्रधान न होय ताकी दृष्टि पहली देहपरि पडै तब ग्लानि उपजै तब यह गुण न होय हैं ॥ ४१६ || आगें मूढदृष्टि गुणक कहै हैं, - भयलज्जालाहादो हिंसारंभो ण मण्णदे धम्मो । जो जिणवयणे लीणो अमूढदिट्ठी हवे सो हु ॥११७॥ १६
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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