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________________ ( २२८ ) पना शुद्धि है. बहुरि शयनासनशुद्धि जहां स्त्री दुष्ट जी नपुंसक चोर मद्यपायी जीववधके करणहारे, नीच लोक व सते होंय तहां न वसै, बहुरि शृंगार विकार आभूषण सुन्दर वेश ऐसी जो वेश्यादिक तिनिकी क्रीडा जहां होय, सुंदर गीत नृत्य वादित्र जहां होते होंय, बहुरि जहां विकार के कारण नग्न गुह्यप्रदेश जिनमें दीखें ऐसे चित्राम होंय, बहुरि जहां हस्य महोत्सव घोडा श्रादिक शिक्षा देनेका ठि काना तथा व्यायामभूमि होय, तहां मुनि न वसै. जिनतें क्रोधादिक उपजै ऐसे ठिकाने न वसै. सो शयनासनशुद्धि ta कायोत्सर्ग खडा रहनेकी शक्ति होय तेतैं स्वरूप में लीन होय खडे रहै पीछें बैठे तथा खेदके मेंटनेकं अल्पकाल सोवै. बहुरि वाक्यशुद्धि जहां आरम्भकी प्रेरणारहित वचन प्रवर्ते युद्ध, काम, कर्कश, मलाप, पैशुन्य, कठोर, परपीडा करनेवाले वाक्य न प्रवर्तें । अनेक विकथाके भेद हैं तिनिरूप वचन न प्रवर्त्ते, जिनिमें व्रत शीलका उपदेश अपना परका जामें हित होय मीठा मनोहर वैराग्यकूं कारण अपनी प्रशंसा परकी निन्दातें रहित संयमी योग्य वचन प्रवर्ते सो वचन शुद्धि है. ऐसें संयम धर्म है. संयमके पांच भेद कहे हैं, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपरा, यथाख्यात ऐसें पांच भेद हैं इनिका विशेष व्याख्यान अ न्यग्रन्थ नितें जानना ॥ ३६९ ॥ आतप धर्म है हैं—
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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