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________________ (२२२) संबंधी स्वजन मित्र आदिके दोऊ चाहै तब आठ भेदरूप प्रवृत्ति है सो जहां सर्वहीका लोभ नाहीं होय तहां शौचधर्म है ।। प्रागै उत्तम सत्यधर्मकू कहै हैंजिणवयणमेव भासदि तं पालेढुं असकमाणो वि। ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो ३९८ ____ भाषार्थ-जो मुनि जिनसूत्रहीके वचनकू कहै, बहुरि तिनिमें जो आचार आदि कह्या है ता• पालने असमर्थ होय वौऊ अन्य प्रकार न कहै. बहुरि व्यवहार करि भी अ. लीक कहिये असत्य न कहै सो मुनि सत्यवादी है. ताकै उत्तम सत्य धर्म होय है. भावार्थ-जो जिनसिद्धान्तमें आचार श्रादिका जैसा स्वरूप कह्या होय तैसा ही कहै. ऐसा नाहीं जो आपसं न पाल्या जाय तब अन्यप्रकार कहै यथावत न कहै. अपना अपमान होय तातै जैसे तैसे कहै अर व्यवहार जो भोजन आदिका व्यापार तथा पूना प्रभावना आदिका व्योहार तिस विष भी जिनसूत्रके अनुसार वचन कहै अपनी इच्छातें जैस तेसैं न कहै. बहुरि इहां दश प्रकार सत्यका वर्णन है. नामसत्य, रूपसत्य, स्थापनासत्य, प्रतीत्यसत्य, संदृतिसत्य, संयोजनासत्य, जनपदसत्य, देशसत्य, भावसत्य, समयसत्य. सो मुनिनिका मुनिनित तथा श्रावकनित वचनालापका व्यवहार है. तहां बहुत भी वचनालाप होय तब सूत्र सिद्धांत अनुसार इस दशप्रकारका सत्यरूप बचनकी भी प्रवृत्ति होय है। तहां अर्थ गुण विना भी वक्ता
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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