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________________ ( २१९ ) तम क्षमा होय है. तहां क्रोधका निमित्त श्रावै तौ वहां ऐसा चितवन करे जो कोई मेरे दोष कहै ते मोविषै विद्यमान हैं तौ यह कहा मिथ्या कहै है ? ऐसें विचारि क्षमा करणी. बहुरि मोविषै दोष नाहीं है तो यह विना जाण्या कहै है वहां प्र ज्ञानपरि कहा कोप ? ऐसे विचारि क्षमा करणी. बहुरि अज्ञानीका बालस्वभाव चिंतना, जो बालक तो प्रत्यक्ष भी कहै यह तो परोक्ष कहै है, यह ही भला है. बहुरि जो प्रत्यक्ष भी कुवचन कहै तो यह विचारना, जो बालक तौ ताडन भी करे यह तो कुवचन ही कहै है, ताडै नाहीं है, यह ही भला है. बहुरि जो ताडन करें तो यह विचारना जो बालक अज्ञानी तो प्राणघात भी करें, यह ताडै ही है प्राणघात तो न किया यह ही भला है. बहुरि प्राणघात करें तो यह विचाबना, जो अज्ञानी तौ धर्मका भी विध्वंस करें यह प्राणघात करें है, धर्मका विध्वंस तौ नाहीं करे है, बहुरि विचारै जो मैं पापकर्म पूर्वै उपनाये थे, ताका यह दुर्वचनादिक उपसर्ग फल है, मेरा ही अपराध है पर तौ निमित्त मात्र है. इत्यादि चितव उपसर्ग श्रादिकके निमिषतें क्रोध नाहीं उपजै तब उ-चमक्षमाधर्म होय है ॥ ३९४ ॥ धागे उत्तम मार्दव धर्मकों कहे हैं, - उत्तमणाणपहाणो उत्तमतवयरणकरणसीलो वि । अप्पाणं जो हीलदि मद्दवरयणं भवे तस्स ॥ ३९५ ॥ भाषार्थ - जो मुनि उत्तम ज्ञानकरि तौ प्रधान होय, बहुरि
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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