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________________ ( २१४ ) विषै इन्द्र होय है. यह उत्कृष्ट श्रावकके व्रतका उत्कृष्ट फल्न है. ऐसें ग्यारमी प्रतिमाका स्वरूप कह्या, अन्य ग्रंथनिमें याके दोय भेद कहे हैं; पहला भेदवाला तौ एक वस्त्र राखे, केसनिकौं कतरखी तथा पाळणा सौंरावै प्रतिलेखया हस्तादिकसू करै, भोजन बैठा करे अपने हाथ भी करै, अर पात्र में भी करे. बहुरि दूसरा केसनिका लौंच करे, प्रतिलेखण पीछें करें. अपने हाथही में भोजन करें, कोपीन धारै, इ. त्यादि याकी विधि अन्य ग्रन्थनितें जाननी । ऐसें प्रतिमा aौ ग्यारमी भई अर बारह भेद कहे थे, तिनिमें यह बारम भेद श्रावकका भया । अब इहां संस्कृतटीकाकार अन्य ग्रंथनिके अनुसार किछु कथन श्रावकका लिख्या है, सो भी संक्षेपतें लिखिये है. तहां छडी प्रतिमाताई तौ जघन्य श्रावक का है. अर सातमी आटमी नवमी प्रतिमाका धारक म ध्यम श्रावक कहया है । पर दसम ग्यारसी प्रतिमावाला उत्कृष्ट श्रावक कहा है । बहुरि कहया है जो समितिसहित व तौ व्रत सफल है. अर समितिरहित प्रवत् तौ व्रत पालता भी अती है. बहुरि कहया है जो गृहस्थके असि मसि कृषि वाणिज्य के आरंभ में त्रस थावरकी हिंसा होय है, सो हिंसाका त्याग याकै कैसे बरी है. सो याका समाधानके अर्थ कहै हैं जो पक्ष, चर्या, साधकता, तीन प्रवृत्ति श्रावककी कही हैं. तहां पक्षका धारक तो पाक्षिक श्रावक कहिये और चर्याका धारक नैष्ठिक श्रावक कहिये अर साधक
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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