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________________ (१८८) भाषार्थ - परके दोपनिका ग्रहण करना परकी लक्ष्मी धन सम्पदाकी बांधा करना परकी स्कूं रागसहित देखना परकी कलह देखना इत्यादि कार्यनिकू करें सो पहला अनर्थदंड है. भावार्थ- परके दोषनिका ग्रहण करनेमें अपने भाव तो बिगड़ै अर प्रयोजन अपना किछू सिद्ध नाहीं, परका बुरा होय आपके दुष्टपना टहरे, बहुरि परकी सम्पदा देखि आप ताकी इच्छा करें तो आपके किछु आय जाय नाहीं यामें भी निःप्रयोजन भाव बिगडे है. बहुरि परकी स्त्रीकूं रागसहित देखने में भी आप त्यागी होयकरि निःप्रयोजन भाव काकूं बिगाडे ? बहुरि परकी कलहके देखने में भी किछु अपना कार्य सधता नहीं. उलटा आपमें भी किछू आफति आय पडे है. ऐसें इनिकूं आदि देकर जिन कार्यनिर्विषै अपने भाव विगडें तहां अपध्यान नामा पहला अनदंड होय है सो अणुव्रतभंगका कारण है याके छोडें व्रत दृढ रहे हैं || ३४४ || अब दूज | पापोपदेश नाम/ अनर्थदंड कहै हैं,— जो उवएसो दिज्जइ किसिपसुपालणवणिज्जपमुहेसु । पुरि सित्थी संजोए अणत्थदंडो हवे विदिओ ॥ ३४५॥ भाषार्थ - जो खेती करना पशुका पालना वाणिज्य कर ना इत्यादि पापसहित कार्य तथा पुरुष स्त्रीका संजोग जैसे होय तैसें करना इत्यादि कार्यनिका परकूं उपदेश देना इनिका विधान बतावना जामैं किछू अपना प्रयोजन सधै
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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