SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१८१) हिंसा होय है ताकी अपने मनविष अपनी निंदा करै है. अर गुरुनिपास अपना पापकू कहै है सो गर्दाकरि युक्त है. जो पाप लगै है ताका गुरुनिकी आज्ञा प्रमाण आलोचना प्रतिक्रमण आदि प्रायश्चित्त ले है. बहुरि जिनिमें त्रस हिंसा बहुत होती होय ऐसे बड़े व्यापार आदिके कार्य महा श्रारम्भ तिनिकौं छोडता संता प्रवत है. भावार्थ-वस घात पाप करै नाही. पर पासि करावै नाही करतेकू भला जान नाही पर जीवकों आप समान जानै तब परघात करै नाही. बहुरि बडे आरंभ जिनिमें त्रस घात बहुत होय ते छोडै अर अल्प आरम्भमें त्रस घात होय तिससे आपकी निन्दा गर्दा करै आलोचन प्रतिक्रमणादि प्रायश्चित्त करै. बहुरि इनिके अ. तीचार अन्य ग्रन्थनिमें कहे हैं तिनिकौं टालै. इहां गाथामें अन्य जीवकों आप समान जानना कह्या है तामें अतीचार टालना भी आय गया. परके बध बंधन अतिभारारोपण अ. नपाननिरोधमें दुःख होय है सो श्राप समान परकू जानै तब काहेकू करै ॥ ३३१-३३२ ।। आगे दूपरा अणुव्रतकौं कहै हैं,-- हिंसावयणं ण वयदि कक्कसवयणं पि जो ण भासेदि। णिठ्ठरवयणं पि तहा ण भासदे गुज्झवयणं पि ३३३ हिदमिदवयणं भासदि संतोसकरं तु सव्वजीवाणं । धम्मपयासणवयणं अणुव्वई हवदि सो विदिओ।
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy