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________________ (१६५) विधिनिषेधकरि सात भंगरौं साधणा. ऐसा नियमकरि जानना, जो वस्तुमात्र अनेक धर्म स्वरूप है सो सर्वकू अ -नेकांत जाणि श्रद्धान करै, बहुरि तैसे ही लोककेविर्षे व्यवहार प्रवर्तावै सो सम्यग्दृष्टी है. बहुरि जीव अजीव प्रा. स्रव बन्ध पुण्य पाप संवर निर्जरा मोक्ष ये नव पदार्थ हैं तिनिङ तैसे ही सप्तभंगत साधने. ताका साधन श्रुतज्ञान प्र. माण है. अर ताके भेद द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक तिनिके भी भेद नैगम संग्रह व्यवहार अजुसूत्र शब्द समभिरूढ एवंभूत नय हैं. बहुरि तिनिके भी उत्तरोत्तर भेद जेते वचनके प्रकार हैं तेते हैं, तिनिकू प्रमाणसप्तभंगी अर नयसप्तभंगीके विधानकरि साधिये है. तिनिका कथन पहले लोकभावना में कीया है. बहुरि तिसका विशेष कथन तत्वार्थसूत्रकीटीकातें जानना. ऐसे प्रमाण नयनिकरि जीवादि पदार्थनिकू जानिकरि श्रद्धान करे सो शुद्ध सम्यग्दृष्टी होय है. बहुरि इहां यह विशेष और जानना जो नय हैं ते वस्तुके एक २ धर्मके ग्राहक हैं ते अपने अपने विषयरूप धर्मकू ग्रहण करनेविष समान हैं तोऊ पुरुष अपने प्रयोजनके वश” तिनिकौं मुख्य गौणकरि कहै हैं जैसें जीव नामा वस्तु है तामैं अनेक धर्म हैं. तौऊ चेतनपणा आदि प्राणधारणपणा अजीवनित असाधारण देखि तिनि अजीवनित न्यारा दिखावनेके प्रयोजनके वश मुख्यकरि वस्तुका जीव नाम धरथा. ऐसे ही मुख्य गौण करनेका सर्व धर्मके प्रयोजनके वशतें जानना.
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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