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________________ ( १६१ ) 'सम्मत्तकम्मउदए खयउवसमियं हवे सम्मं ॥ ३०९ || भाषार्थ- पूर्वोक्त सात प्रकृति तिनिमेंसूं छह प्रकृतिनिका उदय न होय तथा सजाति कहिये समान जातीय प्रकृतिकरि उदयरूप होय बहुरि सम्यक् कर्म प्रकृतिका उदय sia क्षायोपशमिक होय. भावार्थ- मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वका तीव्र उदयका अभाव होय घर सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होय अर अनन्तानुबंधी क्रोध मान माया लोभका उदयका प्रभाव होय तथा विसंयोजनकरि अप्रत्याख्यानावरण आदिक रूपकरि उदयमान होय तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उप है, इनि तीनूं ही सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका विशेष कथन गोमट्टसार लब्धिसारतें जानना ॥ ३०९ ॥ मागें औपशमिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अर अनंतानुवधीका विसंयोजन भर देशव्रत इनिका पावना अर छूटि जाना उत्कृष्टकरि कहै हैं, gapant गिण्हदि मुंचदि जीवो वे सम्मत्ते असंखवाराओ । पढमकसायाविणासं देसवयं कुणइ उक्किट्ठे ॥ ३१०॥ भाषार्थ - यह जीव औपशमिक क्षायोपशमिक ए दोष तौ सम्यक्त्व अर अनंतानुबन्धीका विनाश विसंयोजन अप्रत्याख्यानादिरूप परिणमावना अर देशव्रत इनि व्यारिनिकं असंख्यातवार ग्रहण करें है अर छोडे है. यह उत्कृष्टकरि कया है. भावार्थ- पल्यका श्रसंख्यातवां भाग परिमाण जो ११
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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