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________________ (१५९) स्थूल दोषनित रहित दर्शन प्रतिमाका धारी, २ पांच अणुव्रततीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत ऐसे बार व्रतनिसहित व्रतधारी,३ तथा समायिकवती, ४ पर्वती, ५ मासुकाहारी ६ रात्रीभोजनत्यागी, ७ मैथुनत्यागी, ८ आरंभत्यागी, ९ परिग्रहत्यागी, १० कार्यानुमोदविरत ११ अर उद्दिष्टाहारविरत, १२ इसप्रकार श्रावकधर्मके १२ भेद हैं. भावार्थ-पहला भेद तौ पच्चीसमलदोषरहित शुद्धअविरतसम्यग्दृष्टी है. बहुरि ग्यारह भेद प्रतिमानके व्रतनिकरि सहित होंय सो व्रती श्रावक है ॥ ३०५-३०६ ॥ आगे इनि बारहनिका स्वरूप प्रभृतिका व्याख्यान करै हैं. तहां प्रथम ही अविरत सम्यग्दृष्टीका कहै हैं. तहां भी पहले सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी योग्यताका निरूपण करै हैं,चउगदिभव्वो सण्णी सुविसुद्धो जग्गमाणपज्जचो। संसारतडे नियडो णाणी पावेह सम्मत्वं ॥ ३०७॥ भाषार्थ-ऐसा जीव सम्यक्त्वकू पावै है. प्रथम ही भव्य जीव होय ना अभव्यकै सम्यक्त्व होय नाही. बहुरि च्यारूं ही गतिविष सम्यक्त्व उपजे है तहां भी मन सहित सैनीकै उपजै है. असनीकै उपजे नाही. तहां भी विशुद्ध परिणामी होय, शुभ लेश्या सहित होय, अशुभ लेश्यामें भी शुभ लेश्यासमान कषायनिके स्थानके होय तिनिक विशुद्ध उपचारकरि कहिये संक्लेश परिणामनिविषै सम्यक्त्व उपजे नाही. बहुरि जागताकै होय. भूताकै नाही होय. बहुरि प
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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