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________________ (१५४) बहुरि ऐसा मनुष्यपणा ऐसा दुर्लभ है जा रत्नत्रयकी प्राप्ति हो ऐसा कहै हैं,रयणुव्व जलहिपाडियं मणुयत्वं तं पि होइ अइदुलह एवं सुणिचइत्ता मिच्छकसायेय वजेह ॥३९७॥ भाषार्थ-यह यनुष्यपणा जैसैं रत्न समुद्र में पड्या फेरि पावणा दुर्लभ होय तैसें पावना दुर्लभ है ऐसे निश्चयकरि अर हे भव्य जीवो थें मिथ्या अर कषायनिकू छोडौ ऐसा उपदेश श्रीगुरुनिका है ।। २९७ ॥ आगे कहै हैं जो कदाचित् ऐसा मनुष्यपला पाय शुभपरिणामनित देवपणा पावै तौ तहां चारित्र नाही पावै है,अहवा देवो होदि हु तत्थ वि पावेइ कह वि सम्मत्वं । सो तवचरणं ण लहदि देसजमं सीललेसं पि २९८ भाषार्थ-अथवा मनुष्यपणात कदाचित् शुभपरिणामतें देव भी होय अर कदाचित् तहां सम्यक्त्व भी पावै तौ तहां तपश्चरण चारित्र न पावै है. देशव्रत श्रावकव्रत तथा शीलवत कहिये ब्रह्मचर्य अथवा सप्तशीलका लेश भी न पावै है। ____ आगे कहै हैं कि इस मनुष्यगतिविष ही तपश्चरणादिक है ऐसा नियम है,मणुअगईए वि तओ मणुअगईए महत्वयं सयलं । मणुअगईए झाणं मणुअगईए वि णिव्वाणं ॥२९९॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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