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________________ ( १४८ ) कहीका शिखामणि होय है. भावार्थ - ऐसें साभ्यभाव करि लोकानुप्रेक्षाका चितवन करै सो पुरुष कर्मका नाशकरि लोकके शिखर जायति है. तहां अनन्त अनौपम्य बाधारहि तस्वाधीन ज्ञानानन्दस्वरूप सुखकों भोगवै है । इहां लोक भावनाका कथन विस्तारकरि करनेका आशय ऐसा है जो अन्यमती लोकका स्वरूप तथा जीबका स्वरूप तथा हिताहितका स्वरूप अनेक प्रकार अन्यथा असत्यार्थ प्रमाणविरुद्ध है हैं सो कोई जीत सुनिरि विपरीत श्रद्ध' करें हैं, केई संशयरूप होय हैं, केई अनध्यवसायरूप होय हैं, तिनिकै विपरीत श्रद्धात चित थिरताकौं न पावै है । अर चित्त थिर निश्चित हुवा विना यथार्थ ध्यानकी सिद्धि नाहीं । ध्यान विना कर्मनिका नाश होय नाहीं, तातैं विपरीत श्रद्धान दुरि होनेके अर्थ यथार्थ लोका तथा जीवादि पदार्थनिका स्वरूप जानने के अर्थ विस्तारकरि कथन किया है, ताकूं जानि जीवादिका स्वरूप पहिचान अपने स्वरूपविषै निश्चल चित्त ठानि कर्म कलंक मानि भव्य जीव मोक्षकूं प्राप्त होहु, ऐसा श्रीगुरुनिका उपदेश है ।। २८३ ॥ कुंड लिया. लोकाकार विचार, सिद्धस्वरूपचितारि । रागविरोध विद्यारिकै, बातमरूपसंवारि ॥ श्रातम संवार मौलपुर वसो सदा ही । आधिव्याधिजरमरन श्रादि दुख है न कदा ही ||
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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