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________________ (१४४) आगें समभिरूढ नयकौं कहे हैं,जो एगेगं अत्थं परिणादिभेएण साहए णाणं । मुक्खत्थं वा भासदि अहिरूढं तं णयंजाण २७६ ___भाषार्थ-जो नय वस्तुकौं परिणामके भेदकरि एक एक न्यारा न्यारा भेद रूप सधि अथवा तिनिमें मुख्य अर्थ ग्रहण करि साधै सो समभिरूट नय जाणूं. भावार्थ-शब्द नय वस्तुके पर्याय नामकरि भेद नाहीं करै अर यह समभिरूढ नेय है सो एक वस्तुके पर्याय नाम हैं तिनिके मेदरूप न्यारे न्यारे पदार्थ ग्रहण करै तहां जिसकौं मुख्यकरि पकडै तिस: कौं सदा तैसा ही कहै. जैसे गऊ शब्दके बहुत अर्थ थे तथा गऊ पदार्थके,बहुत नाम हैं.,तिनकौं यह नय न्यारे न्यारे पदार्य मानै है. तिनिमें मुख्यकरि गऊ पकडया ताकौं चा. लतां बैठतां सोवतां गऊ ही कहवो करै. ऐसा समभिरूढ नय है ॥ २७६ ॥ ____एवंभूत नयकौं कहै हैं.जेण सहावेण जदा परिणदरूवम्मि तम्मयचादो। तप्परिणाम साहदि जो वि णओ सो वि परमत्यो॥ भाषार्थ-वस्तु जिस काल जिस स्वभावकरि परिणमनरूप होय तिस काल तिस परिणाम तन्मय होय है. ताते विस ही परिणामरूप साथै, कहै सो नय एवंभूत है. यह नय परमार्थरूम है. भावार्थ-वस्तुका जिस धर्मकी मुख्यता करि .. ... ...
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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