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________________ (१३६) स्वरूप कहै हैं,लोयाणं ववहारं धम्मविवक्खाइ जो पसाहेदि। सुयणाणस्स त्रियप्पो सो विणओ लिंगसंभूदो २६३ भाषार्थ-जो लोकनिका व्यवहारकू वस्तुका एक धर्मकी विवक्षाकरि साथै सो नय है सो कैसा है श्रुतज्ञानका विकस कहिये भेद है बहुरि लिंगकरि उपज्या है । भावार्थ-वस्तुका एक धर्मकी विवक्षा ले लोकव्यवहारकू साथै सो श्रुतज्ञानका अंश नय है. सो साध्य जो धर्म ताकू हेतुकरि साथै 'है. जैसे वस्तुका सत् धर्मकू ग्रहणकरि याकू हेतुकरि साथै जो अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव वस्तु सवरूप है ऐसे नय हेतु उपजै है। ... प्रागें एक धर्मकू नय कैसे ग्रहण करै है सो कहै हैं,णाणाधम्मजुदं पि य एयं धम्मपि वुच्चदे अत्थं । तस्सेयविवक्खादोणत्थि विवक्खा हु सेसाणं २६४ • भाषार्थ-नाना धर्मकरि युक्त पदार्थ है तौऊ एक धर्मरूप पदार्थको कहै जाते एक धर्मकी जहां विवक्षा करै तहां तिसही धर्म कहै अवशेष सर्व धर्मकी विवक्षा नाहीं करै है. भावार्थ-जैसे जीव वस्तुविष अस्तित्व नास्तित्व नित्यत्व अनित्यत्व एकत्व अनेकत्व चेतनत्व अमृतत्व आदि अनेक धर्म हैं विनिमें एक धर्मकी विवक्षाकरि कहे जो जीव चेतनत्वरूप ही है इत्यादि, तहां अन्य धर्मकी विवक्षा नाही करै
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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