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________________ (१२६) उपजै विनसै है ऐसे द्रव्यगुणपर्यायनिका एकत्रपणा है सो ही परमार्यभूत वस्तु है. भावार्थ-गुणका स्वरूप ऐसा नाही जो वस्तुतै न्यारा ही है. नित्यरूप सदा रहै है. गुण गुणीके कथंचित् अभेदर्पणा है, ता” जे पर्याय उपजै विनस हैं ते गुणगुणीके विकार हैं तातें गुण उपजते विनसते भी कहिये. ऐसा ही नित्यानित्यात्मक व तुका स्वरूप है. ऐसे द्र व्यगुणपर्यायनिकी एकता सो ही परमार्थरूप वस्तु है २४२ .. आगे आशंका उपजै है जो व्यनिविषै पर्याय विद्यमान उपजै है कि अविद्यमान उपजै है ? ऐसी श्राशकाकू दुरि करैहैं,जदि दवे पज्जाया वि विजमाणा तिरोहिदा संति। ता उप्पत्ती विहला पडपिहिदे देवदत्तिव्व ॥२४३॥ भाषार्थ-जो द्रव्यविषे पर्याय हैं ते भी विद्यमान हैं अर तिरोहित कहिये ढके हैं ऐसा मानिये तो उत्पत्ति कहना विफल है, जैसे देवदत्त कडा ढक्या था नाकौं उघडया तब कहैं कि यह उपज्या सो ऐसा उपजना कहना तो परमार्थ नाहीं विफल है, तैसे द्रव्यपर्याय ढकीकौं उघडीकौं उपजती कहना परमार्थ नाही, ताक् अविद्यमानपर्यायकी ही उत्पत्ति कहिये ॥ २४३॥ सव्वाण पज्जयाणं अविज्जमाणाण होदि उप्पत्ती । कालाईलद्धीए अणाइणिहणम्मि दवम्मि ॥२४॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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