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________________ (११२) जीवाण पुग्गलाणं विण्ण वि लोगप्पमाणाणि २१२ " भाषार्थ-जीव अर पुद्गल इनि दोऊ द्रव्यनिषू गमन अवस्थानका सहकारी अनुक्रमते कारण हैं, ते धर्म पर अ. धर्म द्रव्य हैं । ते दोऊ ही लोकाकाश परिमाणप्रदेशकू धरै हैं। भावार्थ-जीव पुद्गलकू गमनसहकारी कारण तौ धर्मद्र. व्य है अर स्थितिसहकारी कारण अधर्मद्रव्य है। ए दोऊ लोकाकाशप्रमाण हैं। _आगे आकाशद्रव्यका स्वरूप कहै हैं,-- सयलाणं दव्वाणं जं दातुं सक्कदे हि अवगासं। तं आयासं दुविहं लोयालोयाण भेयेण ॥ २१३ ॥ भाषार्थ-जो समस्त द्रव्यनिकौं अवकाश देनेईं समर्थ है सो आकाश द्रव्य है । सो लोक अलोकके भेदकरि दोय प्रकार है। भावार्थ-जामें सर्व द्रव्य वसैं ऐसे अवगाहनगुग• धरै है सो यह आकाश द्रव्य है । सो जामें पांच द्रव्य बसे हैं सो तौ लोकाकाश है पर जामें अन्य द्रव्य नाही सो अलोकाकाश है, ऐसे दोय भेद हैं। . . भागें आकाशविर सर्व द्रनिकू अवगाहन देनेकी शक्ति है तैसी अवकाश देनेकी शक्ति सर्व ही द्रव्यनिमें है ऐसें कहै हैं,सवाणं व्वाणं अवगाहणसत्ति अत्थि परमत्थं । जह भसमपाणियाणं जीवपएसाण जाण बहुआणं ।।
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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