SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट : समाधि ५२१ ७. समाधि 'वेदान्त दर्शन' के अनुसार समाधि दो प्रकार की है : (१) सविकल्प समाधि, (२) निर्विकल्प समाधि । निर्विकल्प समाधि के आठ अंग बताने में आये हैं और इन आठ अंगों को ही सविकल्प समाधि कहा गया है। निर्विकल्प समाधि के चार विघ्न 'वेदान्तसार' ग्रन्थ में बताये गये हैं। श्री जैनदर्शन दोनों प्रकार की समाधि का सुचारू पद्धति से पाँच योग द्वारा समन्वय करता है। श्री 'योगविशिका' में आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने यह समन्वय किया है और उपाध्यायजी ने उसे विशेष स्पष्ट किया है। यहाँ पाँच योगों द्वारा सविकल्प, निर्विकल्प समाधि बताई गई है। *(१) स्थान : सकलशास्त्रप्रसिद्ध कायोत्सर्ग-पर्यकबन्ध-पद्मासनादि आसन। (२) ऊर्ण : शब्द । क्रियादि में बोले जानेवाले वर्णस्वरुप । (३) अर्थ : शब्दाभिधेय का व्यवसाय । (४) आलम्बन : बाह्य प्रतिमादि विषयक ध्यान । . उपरोक्त चार योग 'सविकल्प समाधि' कहे जा सकते हैं । (५) रहित : रुपी द्रव्य के आलम्बन से रहित निर्विकल्प चिन्मात्र समाधिरुप। यह योग निर्विकल्प समाधि स्वरूप है। पाँच योग के अधिकारी : स्थानादियोग निश्चयनय से देशचारित्री एवं सर्वचारित्री को ही हो सकते हैं। ★ (१) स्थानम्-आसनविशेषरुपं कायोत्सर्गपर्यङ्कबन्धपद्मासनादि-सकलशास्त्रप्रसिद्धम्। (२) उर्णः-शब्दः स च क्रियादौ उच्चार्यमाणसूत्रवर्णलक्षणः । (३) अर्थ-शब्दाभिधेयव्यवसायः। (४) आलम्बनम्-बाह्यप्रतिमादिविषयध्यानम्। (५) रहित : रूपिद्रव्यालम्बनरहितो निर्विकल्पचिन्मात्रसमाधिरूपः। -योगविंशिकायाम्
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy