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________________ ४२६ ज्ञानसार दृष्टि है और ब्रह्मरूप ज्ञान ही जिसका एकमात्र साधन है-ऐसा (ब्राह्मण) ब्रह्म में अज्ञान (असंयम) को नष्ट करता ब्रह्मचर्य का गुप्ति धारक, 'ब्रह्माध्ययन'* का मर्यादावान् और पर ब्रह्म में समाधिस्थ भावयज्ञ को स्वीकार करनेवाला निर्ग्रन्थ किसी भी पाप से लिप्त नहीं होता । विवेचन : खुद का कुछ भी नहीं ! जो कुछ है सब ब्रह्म-समर्पित ! धन-धान्य, ऐश्वर्य-वैभवादि तो अपना नहीं ही, यहाँ तक कि शरीर भी अपना नहीं... । अरे, शरीर तो स्थूल है, लेकिन सूक्ष्म ऐसे मन के विचार भी अपने नहीं... । किसी विचारविशेष के लिए हठाग्रह नहीं ! उसकी दृष्टि सिर्फ ब्रह्म की ओर ही लगी रहती है । सिवाय ब्रह्म के कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता ! भले ही फिर उसकी ओर अनगिनत नजरें लगी हो... लेकिन उसकी निनिमेष दृष्टि सिर्फ ब्रह्म की ओर ही लगी रहती है ! साथ ही उसके पास जो ज्ञान होता है वह भी ब्रह्मज्ञान ही होता है। ब्रह्मज्ञान अर्थात् आत्म-ज्ञान ! उपयोग सिर्फ आत्म-ज्ञान का ही, अर्थात् सदैव मानसिक जागृति के माध्यम से ब्रह्म में लीनता-ही अनुभव करें। और जबतक उसके पास अज्ञान के इंधन हो तबतक वह उसे ब्रह्म में ही स्वाहा करता रहे । जलाकर भस्मीभूत कर दें। साथ ही ब्रह्म की लीनता में बाधक ऐसे हर तत्त्व को ब्रह्माग्नि में स्वाहा करते तनिक भी हिचकिचाहट अनुभव न करें । दृढ संकल्प के साथ आचरित ब्रह्मचर्य-व्रत से योगी के आत्मबल में वृद्धि होती है। वह आत्मज्ञान की अग्नि में कर्मबलि देते जरा भी नहीं थकता! कोई आचार-मर्यादा के पालन में उसे अपने मन को नियंत्रित नहीं करना पड़ता, बल्कि वह सहज ही उसका पालन करता रहता है । 'आचारांगसूत्र' के प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययनों में उल्लिखित मुनि-जीवन की निष्ठाएँ वह अपने जीवन में सरलतापूर्वक कार्यान्वित करता है। क्योंकि परब्रह्म के साथ उसने एकता की कड़ी पहले ही जोड़ ली होती है। वास्तव में ऐसा है ब्रह्मयज्ञ और ऐसा है ब्रह्मयज्ञ का कर्ता / करनेवाला ब्राह्मण ! ब्राह्मण भला, क्या पाप-लिप्त होगा? ऐसा ब्राह्मण भला कर्मबन्धनों में ★ परिशिष्ट में देखिए 'ब्रह्माध्ययन'
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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