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________________ २३. लोकसंज्ञा - त्याग ज्ञानियों को अज्ञानियों की पद्धति पसंद नहीं ! अज्ञानांधकार में आकण्ठ डूबी दुनिया में रहे ज्ञानीपुरुष दुनिया के प्रवाह में नहीं बहते ! वे तो अपने ज्ञान-निर्धारित निश्चित मार्ग पर चलते रहते हैं ! दुनिया से वे सदा निश्चित-बेफिक्र होते हैं ! लोक की प्रसन्नता - अप्रसन्नता को लेकर कोई विचार नहीं करते ! उनका चिंतन-मनन ज्ञान - निर्धारित होता है । लोकप्रवाह... लोक-संज्ञा और लोक मार्ग से तत्त्वज्ञानी - दार्शनिक किस तरह अलिप्त होते हैंयह तुम प्रस्तुत अष्टक पढने से समझ पाओगे । प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं भवदुर्गाद्रिलङ्घनम् । लोकसंज्ञारतो न स्यान्मुनिर्लोकोत्तरस्थितिः ॥२३॥१॥ अर्थ : जिसमें संसार रूपी विषम पर्वत का उल्लंघन है, ऐसे छठ्ठे गुणस्थानक को प्राप्त और लोकोत्तर मार्ग में जो रहा हुआ है ऐसा साधु, मन में लोकसंज्ञा में प्रीतिवाला नहीं होता है । विवेचन : मुनिवर्य, आप कौन हैं ? यदि आप अपने व्यक्तित्व को देखोगे तो नि:संदेह 'लोकसंज्ञा' में प्रीतिभाव नहीं होगा । यहाँ आप की उच्च आत्म-स्थिति का यथार्थ वर्णन किया गया है : 1 (१) आप छठे गुणस्थान् पर स्थित हैं I (२) लोकोत्तर - मार्ग के पथिक हैं ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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