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________________ २०६ ज्ञानसार आत्माद्वैत की दुनिया का सर्जन होता है । जिसमें आत्मा कर्ता है और कर्म भी आत्मा ही है। कारण रूप से आत्मा का दर्शन होता है और संप्रदान के रूप में भी आत्मा का ही दर्शन होता है ! अपादान में भी आत्मा निहित है और अधिकरण में भी आत्मा ! इस तरह आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी का प्रतिभास नहीं होता । जहाँ देखो वहाँ आत्मा ! तब कैसी आत्मानन्द से परिपूर्ण अवस्था होती है ? पुद्गलों के साथ रहे सम्बन्धों से अविवेक पैदा होता है, जो आत्मा में एक प्रकार की विषमता का सर्जन करता है । लेकिन 'मूलं नास्ति कुतः शाखा?' पुद्गल के साथ रहा सम्बन्ध ही तोड़ दिया जाए, तब अक्वेिक का प्रश्न ही नहीं उठता और विषमता पैदा होने का अवसर ही नहीं आता। आत्मा स्वतंत्र रूप से ज्ञान-दर्शन में केलि क्रीज करती है ! जाननेसमझने और देखने-परखने का काम करती है ! अत: स्वयं आत्मा 'कर्ता' ज्ञानसहित परिणाम का आत्मा आश्रय स्थान है। अत: आत्मा 'कर्म' है। उपभोग के माध्यम से ज्ञप्तिक्रिया (जानने की क्रिया) में उपकारक होती है ! अत: आत्मा ही 'करण' है। आत्मा स्वयं ही शुभ परिणाम का दानपात्र है ! अतः आत्मा 'संप्रदान' है। वही ज्ञानादि पर्यायों में पूर्व पर्यायों के विनष्ट होने से और आत्मा से उसका वियोग हो जाने के कारण, आत्मा ही 'अपादान' है। समस्त गुण–पर्यायों के आश्रयभूत आत्मा के असंख्य प्रदेश रूपी क्षेत्र होने की वजह से आत्मा ही 'अधिकरण' है । आत्मचिंतन की ऐसी अनमोल दृष्टि खोल दी गयी है, कि जिसमें आत्मा आत्मा के ही प्रदेश में निश्चिंत होकर परिभ्रमण करती रहे । जङ-पुद्गलों के साथ का सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाए और आत्मा के साथ अटूट बन्धन में जुड़ जाए। कर्तृत्व आत्मपरिणाम का दिखायी दे और कार्य आत्म-गुणों की निष्पत्ति का ! सहायक भी आत्मा और संयोग-वियोग भी आत्मा के पर्यायों में दिखायी दे । साथ ही सबका आधार भी आत्मा ही लगे ! बस, इसका ही नाम है विवेक ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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